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________________ तृतीय अधिकार व्यवहारविधिप्रकरणम् विशदशारदसोमसमाननः कमलकोमलचारुविलोचनः। शुचिगुणः सुतरामभिनन्दनो जयतु भक्तजनेप्सितसिद्धिदः॥१॥ स्वच्छ शरद ऋतु के चन्द्र के समान मुख वाले, कमल के समान कोमल और सुन्दर नेत्र वाले, अत्यधिक पवित्र गुण वाले, भक्तजनों को वाञ्छित सिद्धि प्रदान करने वाले (चौथे तीर्थङ्कर) अभिनन्दन की जय हो। हेमपीठसमासीनः सभ्यमन्त्रियुतो नृपः। व्यवहारपरामर्श कुर्याद्विद्वज्जनैः सह॥२॥ स्वर्ण आसन पर विराजमान, सभासदों और मन्त्रियों सहित राजा द्वारा विद्वान् पुरुषों के साथ व्यवहार नीति सम्बन्धी मन्त्रणा करनी चाहिये। (वृ०) तत्रव्यवहारो नाम एकस्मिन् वस्तुनि परस्परविरुद्धधर्मयोरेकधर्मव्यवच्छेदेन स्वीकृततदन्यधर्मावछिन्नस्वपक्षसाधकव्यवस्थापनार्थं साधनदूषणवचनं व्यवहारः। एक वस्तु में परस्पर विरोधी (साधक एवं बाधक) धर्मों में से एक धर्म के खण्डन तथा स्वविहित विशिष्ट गुणों द्वारा दूसरी सब वस्तुओं से पृथक् (अविच्छिन्न) अन्य स्वीकृत धर्म के पक्ष को सिद्ध करने वाले तथा बाधित करने वाले वचनों का नाम व्यवहार है। ननु उभयधर्माधारभूतैकवस्तुनि अन्यधर्मनिरासेन तदन्यधर्मान्तरं व्यवस्थापयितुं वादिना साधनमुच्यते तत्रैव दूषणोद्भावनेन प्रतिवादिनां वादिसाधितपक्षविपक्षीभूतं स्वोक्तिसमर्थनैकहेतुभूतं वचनं कथं सङ्गच्छते मिथो व्याघातादिति। (शङ्का) साधक तथा बाधक दोनों विरोधी धर्मों के आधारभूत एक वस्तु में अन्य (बाधक) धर्म के निराकरण से दूसरे (साधक) धर्म को व्यवस्थापित करने
SR No.022029
Book TitleLaghvarhanniti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemchandracharya, Ashokkumar Sinh
PublisherRashtriya Pandulipi Mission
Publication Year2013
Total Pages318
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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