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________________ युद्धनीतिप्रकरणम् कुछ शर्तों के साथ परस्पर उपकार के नियमों की व्यवस्था करना सन्धि है । सन्धि दो प्रकार की है सत्यसन्धि और माया सन्धि । यदुक्तम् - ---- जैसा कि कहा गया है। - तत्रैकः सत्यसन्धिः स्याद्यथोक्तं नान्यथा भवेत्। मायासन्धिर्द्वितीयस्तु मायया यः प्रतन्यते ॥१॥ १९ उनमें प्रथम सत्यसन्धि में कथन के अनुरूप व्यवहार होता है, इससे भिन्न नहीं और द्वितीय माया सन्धि में माया का विस्तार होता है। दूसरे शब्दों में सत्यसन्धि जिस रूप में की जाती है उसी रूप में उसका पालन होता है। द्वितीय माया सन्धि प्रपञ्च रूप है। स्वार्थं मित्रार्थं वा युद्धाद्यपकाराचरणं विग्रहः । २ । अपने लिए अथवा मित्र के लिए युद्धं आदि अपकार करना विग्रह है। एकाकिनः समित्रस्य वा शत्रुं प्रति साधनार्थगमनं यानम् । ३ । शत्रु के दमन हेतु अकेले अथवा मित्र सहित गमन यान है। दीनबलतया मित्रानुरोधेन वोपेक्षासनम् ॥४॥ निर्बल होने अथवा मित्र के अनुरोध से (शत्रु की) उपेक्षा कर (अपने स्थान पर रहना) आसन है। शत्रुरोधार्थं सेनानीः कतिपय बलान्वित एकतो- दुर्गबहिस्तिष्ठेदन्यतो राजापि कतिचित्सेनाकलितो दुर्गे तिष्ठेत् इति स्वबलस्य द्विधाकरणं द्वैधम्। ५ । शत्रु को रोकने के लिए कुछ सेना सहित सेनापति एक ओर दुर्ग के बाहर स्थित रहे, दूसरी ओर राजा भी कुछ सेना के साथ दुर्ग में रहे इस प्रकार अपनी सेना को दो हिस्से में विभाजित करना द्वैध है। शत्रुसङ्कटे सहायेच्छया साम्प्रतिकायतिकदुःखनिवृत्यर्थं बलवत्तरान्यभूपाश्रयणं संश्रयः । ६ । . शत्रु से सङ्कट देख दुःख के निवारण हेतु सहायता प्राप्त करने की से 'इच्छा अधिक शक्तिशाली राजा का आश्रय संश्रय है। एते गुणा यथावसरं यथास्थानं प्रयोगार्हाः, तदेव दर्शयति उपरोक्त छः गुण अवसरानुकूल और उचितस्थान पर प्रयोग करने के योग्य हैं । उसी का निरूपण किया जाता है -
SR No.022029
Book TitleLaghvarhanniti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemchandracharya, Ashokkumar Sinh
PublisherRashtriya Pandulipi Mission
Publication Year2013
Total Pages318
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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