SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 51
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वितीय अधिकार २.१ युद्धनीतिप्रकरणम् जगन्नाथं सनाथं चाद्भुतलक्ष्योर्जितप्रभम्। प्रत्यूहनाशने दक्षमजितं समुपास्महे॥१॥ जगत के स्वामी, अलौकिक सौन्दर्य से दीप्त कान्ति वाले, विघ्न का नाश करने में सक्षम, (दूसरे तीर्थङ्कर) अजित की उपासना करता हूँ। पूर्वाधिकारे यत्प्रोक्तं हिताहितविचारणम्। नीतिप्रवर्तनं कृत्यं भूपालस्य तदुच्यते॥२॥ पूर्व अर्थात् प्रथम अधिकार में वर्णित हित-अहित के विमर्श के सम्बन्ध में नीति के क्रियान्वयनरूप राजा का जो कर्तव्य है उसका कथन किया जाता है। (वृ०) तत्रादौ नृपेण विचारणा कुत्र कथं कैश्च कर्त्तव्येत्याह - आरम्भ में राजा द्वारा किस स्थल पर, किस रीति से और किनके साथ मन्त्रणा करनी चाहिए, इसका निरूपण - उद्याने विजने गत्वा प्रासादे वा रहःस्थितः। मन्त्रयेन्मन्त्रिभिर्मन्त्रं भूयः स्वस्थः समाहितः॥३॥ निर्जन उद्यान में अथवा महल में एकान्त में जाकर स्वस्थ तथा दत्तचित्त होकर राजा द्वारा मन्त्रियों के साथ बार-बार मन्त्रणा करना चाहिये। मन्त्रभेदे कार्यभेदः पार्थिवानां प्रजायते। अतो मन्त्रणेऽखिलान् मन्त्रभेदकानपसारयेत्॥४॥ परामर्श या गुप्त वार्ता का रहस्य खुलने से राजाओं की कार्य योजना बाधित होती है। इसलिए मन्त्रणा के समय गुप्त परामर्श के सभी भेद खोलने वालों को बाहर हटाना चाहिए। १. प्रसादे भ १, भ २, प १, प २।।
SR No.022029
Book TitleLaghvarhanniti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemchandracharya, Ashokkumar Sinh
PublisherRashtriya Pandulipi Mission
Publication Year2013
Total Pages318
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy