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________________ लघ्वर्हन्नीति स्वस्वामिने जयो देयः कार्यं स्वप्राणरक्षणम्। . दण्डनायकमुत्कृष्टमित्येवं शिक्षयेद्गुरुः॥८९॥ - इति सेनापतिशिक्षा॥ बुद्धि और बाहुबल से शत्रु बल को तोड़ना चाहिए, शत्रुपक्ष का भरोसा नहीं करना चाहिए। दूसरे के राज्य में पहुँचकर प्रमाद नहीं करना चाहिए। शत्रुसेना के संख्या में कम होने पर भी महान प्रयास करना चाहिए। देश, काल, सैन्य, पक्ष, षड्गुण तथा शक्ति का सङ्गम देखकर शत्रुओं के साथ युद्ध करना चाहिये अन्यथा नहीं। अपने राजा को विजय प्रदान करना चाहिये और अपने प्राणों की रक्षा करनी चाहिये इस प्रकार गुरु द्वारा दण्डनायक को उत्तम शिक्षा देनी चाहिये। कुलीनाः कुशलाधीराः शूराः शास्त्रविशारदाः। स्वामिभक्ता धर्मरताः प्रजावात्सल्यशालिनः॥९०॥ सर्वव्यसननिर्मुक्ताः शुचयो लोभवर्जिताः। समाशयाश्च सर्वेषु नृपवस्तुसुरक्षकाः॥९१॥ परोपेक्षाविनिर्मुक्ताः गुरुभक्ताः प्रियंवदाः। महाशया महाभाग्याः धर्मे न्याये सदा रताः॥१२॥ अप्रमादाः प्रसन्नाश्च प्रायः कीर्तिप्रिया अपि। कर्माधिकारे योग्याः स्युरीदृशाः पुरुषाः परम्॥९३॥ उच्च कुल, कुशल, धैर्यवान्, पराक्रमी, शास्त्रवेत्ता, स्वामिभक्त, धर्मनिष्ठ, प्रजावत्सल, समस्त व्यसनों से मुक्त, पवित्र, लोभरहित, सबके प्रति समभाववाला, राजा की वस्तु की रक्षा करने वाला, दूसरे की आशा नहीं रखने वाला, गुरुभक्त, प्रियभाषी, उदार चित्तवाला, भाग्यशाली, सर्वदा धर्म तथा न्याय में अनुरक्त, आलस्यरहित, प्रसन्नचित्त और प्रायः यश की आकांक्षा वाला, इस प्रकार के पुरुष राजा के अधिकारी बनने के अत्यन्त योग्य हैं। (वृ०) इतिसामान्यतःसर्वेषांकर्माधिकारिणां लक्षणानि - इस प्रकार सामान्य रूप से सभी राजकर्मचारियों के लक्षण (कहे गये) -- स्वामिना यदि यत्कर्म न्यस्तं विश्वासतस्त्वयि। अत्र प्रमादो नो कार्यो विधेयं स्वामिवाञ्छितम्॥९४॥ स्वामी द्वारा कर्मचारी में विश्वासपूर्वक उसे जो भी कार्य सौंपा गया है उसमें आलस्य नहीं करना चाहिए, स्वामी के अभिलषित की पूर्ति करनी चाहिए। प्रजा न पीडनीयास्तु स्वयं पत्युर्न कर्म च। अर्जनीयं नयाद्वित्तं न हेयं सत्यमुत्तमम्॥९५॥
SR No.022029
Book TitleLaghvarhanniti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemchandracharya, Ashokkumar Sinh
PublisherRashtriya Pandulipi Mission
Publication Year2013
Total Pages318
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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