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________________ चतुर्थ अधिकार प्रायश्चित्तम् चिदानन्दमयं योगिध्यानतानैकलक्षितम्। नष्टाष्टदुष्टकर्मारि श्रीपार्श्व प्रणिदध्महे॥१॥ चिदानन्दरूप, योगियों के ध्यान के लक्ष्य, आठ कलुषित कर्म रूपी शत्रुओं का नाश करने वाले (तेईसवें तीर्थङ्कर) श्री पार्श्वनाथ की वन्दना करता हूँ। (वृ०) पूर्वाधिकारान्त्ये प्रकरणे स्त्रीपुंधर्मो निरूपितः ततः स्खलने प्रायश्चित्तस्यावश्यकतातो लौकिकप्रायश्चित्तस्य लौकिकव्यवहाराङ्गत्वेन ज्ञातिदण्डनीतिरूपत्वेन च नीतिसाहचर्याद्वर्णनात्राधिकारे क्रियते - पूर्व अधिकार के अन्तिम प्रकरण में स्त्री-पुरुष धर्म का निरूपण किया गया। स्त्री-पुरुष धर्म के मार्ग से विचलित होने पर प्रायश्चित्त-की आवश्यकता होने से लौकिक प्रायश्चित्त जो लौकिक व्यवहार के साधन जाति द्वारा प्रदत्त दण्डनीति के रूप में होने से नीति से सम्बन्ध होने के कारण इस अधिकार में प्रायश्चित्त का वर्णन किया जाता है - मातङ्गयवनादीनां म्लेच्छानां 'सङ्घट्टने नरः। कुर्याद्यो भोजनं तस्य प्रायश्चित्तमिदं भवेत्॥२॥ चाण्डाल, यवन आदि म्लेच्छों के संसर्ग में जो पुरुष भोजन करे उसका प्रायश्चित्त इस प्रकार होना चाहिए। उपवासाश्च पञ्चाशदेकभक्तास्तथैव च। पञ्चैव तीर्थयात्राश्च तथा सधर्मिवत्सलाः॥३॥ पञ्चपूजाजिनानां च शान्तिकापौष्टिकादयः। सङ्घभक्तिर्गुरौभक्तिर्दानानि च यथाविधि॥४॥ १. संघट्टने नरः भ १, भ २, प १, प २।।
SR No.022029
Book TitleLaghvarhanniti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemchandracharya, Ashokkumar Sinh
PublisherRashtriya Pandulipi Mission
Publication Year2013
Total Pages318
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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