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________________ तृतीय अधिकार स्तैन्यप्रकरणम् प्रणम्य श्रीयुतं मल्लि मल्लं मोहादिताडने। स्तैन्यप्रकरणं वक्ष्ये समुद्धृत्य श्रुतादहम्॥१॥ मोहादि (कषायों) के नष्ट करने में मल्ल रूप श्रीयुत् (तीर्थङ्कर) मल्लिनाथ का वन्दन कर आगम या शास्त्र से उद्धृत कर मैं स्तैन्य प्रकरण का वर्णन करूँगा। (वृ०) पूर्वप्रकरणे द्यूतवर्णनोक्ता तत्र हारितश्चौर्याचरणं कोऽपि करोत्यतो व्यसनत्व साधादधुना स्तैन्यवर्णनाधिक्रियते - पूर्व प्रकरण में द्यूत का वर्णन किया गया, द्यूत में हारा हुआ कोई भी चोरी का आचरण करता है। इसलिए व्यसन की समानता से अब स्तैन्य-वर्णन का अधिकार कहा जाता है - नृपतेः परमो धर्मः स्वप्रजापालनं सदा। 'स्तैन्यादिभ्यो यतः कीर्तिर्विस्तृता स्याद्दिगन्तरे॥२॥ चोरी आदि (दुष्कृत्यों) से सदा अपनी प्रजा का पालन करना परम कर्त्तव्य है जिससे दिशाओं में यश फैले। लोकानां संसृतौ तुल्योऽभयदानेन नो वृषः। तस्माज्जनैः सदा यत्नोऽभये कार्यः समधिया ॥३॥ इस जगत में (जीवों को) शरण या रक्षा देने के समान कोई श्रेष्ठ (दान) नहीं है इस कारण लोगों को सदा समानता की बुद्धि से अभय देने का कार्य करना चाहिए। १. २. ३. पुरास्तै० भ १, भ २, प १, प २।। ०स्तदाय० भ १, भ २, प १, प २॥ समधिवा भ १, भ २, प १, प २॥
SR No.022029
Book TitleLaghvarhanniti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemchandracharya, Ashokkumar Sinh
PublisherRashtriya Pandulipi Mission
Publication Year2013
Total Pages318
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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