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________________ दायभागप्रकरणम् गृहीत्वा दत्तकं पुत्रं स्वाधिकारं प्रदाता । तस्मायात्मीयवित्तेषु स्थिता स्वस्वधर्मका ॥ १२० ॥ कालचक्रेण सोऽनूढः चेन्मृतो दत्तकस्तदा। न शक्ता स्थापितुं सा हि तत्पदे चान्यदत्तकम् ॥ १२१ ॥ दत्तक पुत्र ग्रहणकर अपने धन का अधिकार सब प्रकार उसे सौंप कर कोई विधवा स्वयं धर्मकार्य में तत्पर हो जाये। समय के प्रभाव से वह दत्तक अविवाहित ही यदि मृत्यु को प्राप्त हो जाये तो उसके स्थान पर वह अन्य दत्तक स्थापित करने की अधिकारिणी नहीं है। जामातृभागिनेयेभ्यः सुतायै ज्ञातिभोजने । अन्यस्मिन् धर्मकार्ये वा दद्यात्स्वं यथारुचि ॥१२२॥ दामाद, भागिनेय, पुत्री और जाति भोजन अथवा दूसरे धार्मिक कार्य में वह अपनी रुचि के अनुसार धन दे । ११५ युक्तं वै स्थापितुं पुत्रं स्वीयभर्तृपदे तया । कुमारस्य पदे नैव स्थापनाज्ञा जिनागमे ॥ १२३ ॥ उस (विधवा) के द्वारा अपने स्वामी पद पर दत्तक स्थापित करना युक्तिसङ्गत है । परन्तु उसके द्वारा कुमार अर्थात् पुत्र के पद पर स्थापना की आज्ञा जैन आगममें नहीं है। १. ( वृ०) ननु विधवा विभक्ताविभक्ता वा पुत्रेऽसति सति व्ययं दानं विक्रयादि च कर्तुं समर्था न वेत्याह - विधवा विभाजित अथवा संयुक्त (रूप से रह रही हो) पुत्रवती हो अथवा पुत्र रहित वह अपनी सम्पत्ति को व्यय करने, दान देने अथवा विक्रय करने में समर्थ है अथवा नहीं, इसका कथन - — विधवा हि विभक्ता चेत् व्ययं कुर्यात् यथेच्छ्या । प्रतिषेद्धा न कोऽप्यत्र दायादश्च कथंचन ॥ १२४ ॥ यदि विभाजन हो गया है तब वह विधवा अपनी इच्छानुसार व्यय करे इसमें कोई दायाद (पैतृक सम्पत्ति का हिस्सेदार) बाधा डालने वाला न हो । अविभक्ता सुताभावे कार्ये त्वावश्यकेऽपि वा । कर्तुं शक्ता स्ववित्तस्य दानमाधिं च विक्रयम् ॥१२५॥ यदि विभाजन न हुआ हो तो विधवा पुत्र के अभाव में आवश्यक कार्य अन्यस्मै भ १, भ २ प १, अन्यसो प २ ॥
SR No.022029
Book TitleLaghvarhanniti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemchandracharya, Ashokkumar Sinh
PublisherRashtriya Pandulipi Mission
Publication Year2013
Total Pages318
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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