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________________ तृतीय अधिकार सम्भूयोत्थानप्रकरणम् पूर्वप्रकरणे ऋणादानं प्रपञ्चितं तल्लब्धधनाश्चानेकेप्येकीभूय व्यवहाराद्यपि कुर्वन्ति इति सम्भूयोत्थानं विरच्यते - पूर्व प्रकरण में ऋणादान के विषय में कहा गया ऋण से उपलब्ध धन का अनेक लोग मिलकर व्यवहार आदि करते हैं, अतः सम्भूयोत्थान की रचना की जाती है - पद्मप्रभं जिनं नत्वा पद्माभं पद्मलाञ्छनम्। सम्भूय च समुत्थानक्रमं वक्ष्ये समासतः॥१॥ कमल सदृश कान्ति वाले और कमल के लाञ्छन से युक्त, तीर्थङ्गर पद्मप्रभ की वन्दना कर एकत्रित होकर (समूह बनाकर) कार्य करने वालों के व्यवहार का संक्षेप से कथन करूँगा। सर्वैर्मिलित्वा लाभार्थं वणिजो 'नृत्यकारिभिः। क्रियते वृत्तिरन्योऽन्यसंमत्या सद्भिरुच्यते॥२॥ सभी नर्तक आदि द्वारा मिलकर लाभ के लिए किये जाने वाले व्यापार को सज्जन परस्पर सम्मति से की जाने वाली आजीविका कहते हैं। समवायस्तत्र मुख्यो 'वणिग्गौणा नटादयः। यो भक्ष्यवस्त्र धान्यादीन् दत्ते सो मुख्यतां भजेत्॥३॥ समवाय अथवा समूह उसमें मुख्य है। नट आदि वणिग् उसमें गौण हैं। इस समूह या मण्डली को लोग जो खाद्य सामग्री, वस्त्र, धान्य आदि देते हैं उसका मुख्य (मण्डली) के अनुसार गणना होती है। भृत्यकादिभिः भ १, प २॥ वणिऔणानपदयः भ १, भ २, प १, प २।। धान्यादीदत्ते प १, प २॥
SR No.022029
Book TitleLaghvarhanniti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemchandracharya, Ashokkumar Sinh
PublisherRashtriya Pandulipi Mission
Publication Year2013
Total Pages318
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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