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________________ ऋणादानप्रकरणम् ७५ द्वार एवं मार्ग सम्बन्धी विवाद और जल निकासी के सम्बन्ध में भोग ही सशक्त पक्ष है शपथ आदि या साक्ष्य नहीं। सभी प्रकार की सम्पत्तियों के विवाद के निर्णय में पूर्वजों के समय से चली आ रही क्रिया बलवती होती है जबकि आधि, प्रतिग्रह और कूप्य के निर्णय में साक्षी को प्रधानता दी जाती है। (वृ०) यथा केनचिदेकं क्षेत्र कस्यचित्पावें आधिं कृत्वा द्रव्यं गृहीतं पुनरन्यत्र तदेवाधिः कृतः पुनः कालान्तरे कारणवशाद्विग्रहोत्पत्तौ जातेऽभियोगे भूपः साक्ष्यादिभिः पूर्वापरनिर्णयं कृत्वा पूर्वस्य एव द्रव्यं दापयेत् भुक्तिप्रामाण्याऽवसरे तु यथाशास्त्रं विधेय-मित्याह - जिस प्रकार कोई एक क्षेत्र किसी के पास आधि रखकर धन ग्रहण कर लिया फिर वही क्षेत्र अन्यत्र आधि के रूप में रख दिया। पुनः कालान्तर में कारणवश कलह उत्पन्न होने पर वाद समक्ष आने पर राजा साक्ष्य आदि द्वारा पहले और पश्चात् का निर्णय कर पहले वाले को ही द्रव्य दिलवाये। आधि के भोग (उपयोग) के प्रमाण की स्थिति में शास्त्र के अनुरूप न्याय करना चाहिए, इसका कथन - परेण भुज्यमाने ज्यां पश्यन्यो न निषेधते। विंशत्यब्देषु पूर्णेषु ऋणी प्राप्नोति नैव ताम्॥६०॥ अन्य के द्वारा अपनी भूमि का उपयोग देखते हुए भी जो नहीं रोकता है बीस वर्ष पूर्ण हो जाने पर ऋणी उसे नहीं पाता है। हस्त्यश्वादिधनस्यापि मर्यादा दशवार्षिकी। ततः परं न शक्तः स्यादवाप्तुं तद्धनं प्रभुः॥१॥ हाथी, घोड़े आदि धन की भी मर्यादा दस वर्ष की होती है उसके पश्चात् उस धन को प्राप्त करने में स्वामी समर्थ नहीं होता। (वृ०) आधिनिह्नवकर्ता मौल्यदो दण्ड्यश्चेत्याह - आधि को छिपाने वाले को मूल देना पड़ेगा और दण्ड भी देना पड़ेगा, यह कथन आध्यादिद्रव्यं यो लोभान्निद्भुते साक्षिनिर्णये। ऋणिने दापयित्वा तन्मौल्यं दण्डयेनृपः॥६२॥ प्रतिभूति रूप धन को यदि धनवान छिपाता है तो साक्षी के निर्णय से धन ऋणी को दिलवाकर राजा (धन के मूल्य के बराबर) उसे (धनवान को) दण्डित करना चाहिये।
SR No.022029
Book TitleLaghvarhanniti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemchandracharya, Ashokkumar Sinh
PublisherRashtriya Pandulipi Mission
Publication Year2013
Total Pages318
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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