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________________ [८] आ स्थळे दृष्टांतरूपे जणाववुं उचित समजु छु के- पू. गच्छनायक आ. श्री विजयदानसूरिजी महाराज . पोताना परमप्रीतिपात्र एवा पं. राजविमलगणिने पोतानी पाटे स्थापवानी भावनावाळा हता अने समग्र समुदाय पण तेवी ज मान्यतावाळो हतो. ते समये पू. गच्छनायके पोताना हृदयनी भावना, महोपाध्यायश्रीने जणावतां समुदाय हितवत्सल एवा महोपाध्याय श्रीए पोतानी नापसंदगी व्यक्त करवा पूर्वक स्पष्ट जणावेल के - 'हीरहर्षगणिने आचार्यपद आपी पाटे स्थापवाथी शासन अने समुदायनो उत्कर्ष थशे.' पू. महोपाध्याय श्री धर्मसागरजी गणिनी आ आप्तसलाहने ज मान्य राखीने पू. गच्छनायके पं. राजविमलने पदवी न आपता हीरहर्षगणिने आचार्यपदवी आपीने तेमज 'विजयहीरसूरि' नामस्थापना करीने पोतानी पाटे स्थापेल ! वीज रीते गच्छनायक बनवा पामेला पू. आ. श्री विजयहीरसूरिजी महाराजे पण पोताना समुदायमांना समर्थ विद्वान अने दीर्घचारित्री एवा महोपाध्यायोने छोडी दइने पू. महोपाध्याय श्रीनी ज सलाह अने सूचनाने मान्य राखी बालमुनि 'जयविमल' ने आचार्य बनाव्या अने 'विजयसेनसूरिजी ' एवं नाम स्थापन करीने पोतानी पाटे स्थाप्या हता. आवुं गौरववंतु स्थान वडीलोना हृदयोमां फक्त पू. महोपाध्यायश्रीनुं ज हतुं । आवं पू. महोपाध्यायश्री धर्मसागरजी गणिनुं अलौकिक व्यक्तित्व, प्रभुत्व, वर्चस्व अने विस्तृत प्रतिभाबळ पांगरतुं जोइने प्रमुदित थवाने बदले समुदायमां अग्रेसर गणाता एवा पू. महोपाध्यायश्री सोमविजयजी महाराज तथा बीजा पू. महोपाध्यायोमां पू. महो० श्री धर्मसागजी म. प्रति असूयाभाव प्रकट्यो ! जेना परिणामे पू. उसकलचंद्र गणि, पू. उ. श्री कीर्त्तिविजयजीगणि, पू. उ. श्री धर्मविजयजी - गणि, पू. उ श्री रत्नचंद्रगणि, पं. श्री सिंहविमलगणि, कविश्री दर्शनविजयजी, उ. श्री विनयवि. आदि प्रतिस्पर्धी बनेला मुनिजूथनी आगेवानी पू. महो० श्री सोमविजयजीगणिए लीधी ! अने शासन तथा समुदायना हितने लक्ष्यमां राखवाने बदले पोतानी मानेली मानहानिने आगळ करीने चालवा टेवायेला प्रतिस्पर्धी जूथना मोवडी एवा पू. महो० श्री सोमविजयजी महाराजे पू. महो० श्री धर्मसागरजी म. नी सामे विरोधी वातावरण वधु ने वधु केळववामां पोताना ज्ञानने अने व्यवहारनिपुणताने कामे लगाडी दीधी ! जेना परिणामे तपागच्छना प्रतिस्पर्धी एवा खरतर - आंचलिक पार्श्वचंद्र- पूनमीआ आदिनो पण ते प्रतिस्पर्धीजूथने साथ मळवा लाग्यो अने तेथी ते प्रतिस्पर्धीवर्गे 'पू. उपा. श्री धर्मसागजीने समुदाय बहार करी दीधा छे, तेमने माफीपत्रो लखी आपवा पड्या छे, गच्छाधिपति श्री तेमना बनावेला ग्रंथोने जलशरण कर्या छे' इत्यादि प्रकारनी जूटी वातो प्रचारखा मांडी अने जूथबळे पू. गच्छाधिपति पासे पट्टको फरजियात करावी छूटे हाथे प्रचारखा पण माड्या ! आम छतां सागरना जेवा दरियावदिलवाळा पू. महो० श्री धर्मसागरजी महाराजे पोताने बदनाम अने बेइजत करवावाळा ते प्रचारने लक्ष्यमां लीधा सिवाय शासनरक्षानां ज कामो चालु राख्यां ! जेवां के - - (१) राधनपुरमां कडुआमती श्रावकोनां कुंटुबोने प्रतिबोधीने तपगच्छनी शुद्धसामाचारी स्वीकारावी, (२) खरतरगच्छनो श्रावक अने नागोरी लोकामतनो प्रचारक एवा बीकानेरना देवा कोचरने (कोइपण जीती शकेल नहि, छतांय ) तेनी साथै नित्यानित्यनी चर्चामां पराभवित करी चूप करेल ! एटलुं ज नहि परंतु तेना आखा कुंटुंबने तपगच्छना श्रावक बनाव्या, (३) खरतर अने तपगच्छनी सामाचारीमां ३६० बोलोनी तारवणी करीने खुद पू. गच्छनायकने खरतरनी तरफेणमां ज्रता अटकावेल, (४) जेसलमेरथी चर्चा करवाने बदले पाटण तरफ नासी छूटेला खरतरना उपाध्याय धनराजनी पाछळोपाछळ पं. पद्मसागर गणि तथा जीतसागर गणिने विहार करावी फरजियात पाटण
SR No.022027
Book TitleKupaksha Kaushik Sahasra Kiran Aparnam Pravachan Pariksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsagar, Narendrasagarsuri, Munindrasagar, Mahabhadrasagar
PublisherShasankantakoddharsuri Jain Gyanmandir
Publication Year2002
Total Pages502
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size16 MB
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