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________________ -७० सम्यक्त्वविषयभूतस्य जीवतत्त्वस्य प्ररूपणा एगाइ तिन्निसमया तिन्नेवऽन्तोमुहुत्तमित्तं च । साई अपज्जवसियं कालमणाहारगा कमसो ॥६९॥ एकाद्यांस्त्रीन् समयान् विग्रहगतिमापन्ना अनाहारकाः। उक्तं च-एक द्वौ वानाहारकः इति । वाशब्दास्त्रिसमयग्रहः। त्रीनेव समयाननाहारकाः समुद्घाते केवलिनः । यथोक्तम् कामणशरीरयोगो चतुर्थके पञ्चमे तृतोये च। समयत्रयेऽपि तस्मिन् भवत्यनाहारको नियमात् ॥१॥ अन्तर्मुहूतं चानाहारका अयोगिकेवलिनः, तत ऊर्ध्वमयोगिकेवलित्वाभावादपवर्गप्राप्तः। साद्यपर्यवसितं कालमनाहारकाः सिद्धा व्यक्त्यपेक्षया तेषां सादित्वादपर्यवसितत्वाच्च । अत एवाह क्रमश एवंभूतेनैव क्रमेणेति गाथार्थः ॥६९॥ व्याख्यातमाहारकद्वारम्, सांप्रतं पर्याप्तकद्वारमाह नारयदेवा तिरिमणुय गब्भया जे असंखवासाऊ । एए ये अपज्जत्ता उववाए चेव बोद्धव्वा ॥७॥ ___ नारकाश्च देवाश्च नारकदेवास्तथा तिर्यमनुष्याः तिर्यञ्चश्च मनुष्याश्चेति विग्रहः । गर्भजा गर्भव्युत्क्रान्तिकाः, संमूच्छिमव्यवच्छे दार्थमेतत् । ते च सङ्घयेयवर्षायुषोऽपि भवन्ति, तद्वयवच्छेदार्थमाह-येऽसङ्घयेयवर्षायुष' इति । एते चापर्याप्ता आहार-शरीरेन्द्रिय-प्रागापान. भाषा-मनःपर्याप्तिभी रहिताः। उपपात एव उत्पद्यमानावस्थायामेव बोद्धव्या विजेयाः, न तूतर. कालं पर्याप्ता लब्धितोऽपोति । पूर्वगाथामें निर्दिष्ट विग्रहगतिको प्राप्त आदि वे जीव कितने समय तक अनाहारक रहते हैं, इसे आगेकी गाथा द्वारा स्पष्ट किया जाता है वे क्रमसे एकको आदि लेकर तोन समय तक, तीन ही समय, अन्तर्मुहूर्त मात्र और सादिअपर्यवसित काल अनाहारक रहते हैं। विवेचन-पूर्व गाथामें जिस क्रमसे अनाहारक जीवोंका निर्देश किया गया है, प्रकृत गाथामें उसी क्रमसे उनके अनाहारक कालका निर्देश किया गया है। तदनुसार यह अभिप्राय हुआ कि विग्रहगतिको प्राप्त जीव एक समय, दो समय अथवा तीन समय अनाहारक रहते हैं। इसकी पुष्टि “एकं द्वौ त्रीन् वानाहारकाः" इस सूत्र ( त. सू. २-३१ ) से भी होतो है। प्रशमरति प्रकरण ( २७५-७६ ) के अनुसार समुद्घातको प्राप्त केवली कार्मग काययोगसे युक्त होते हुए तीसरे, चौथे और पांचवें इन तीन समयोंमें अनाहारक होते हैं। अयोगिकेवली अन्तर्मुहूर्त काल अनाहारक होते हैं, तत्पश्चात् वे मुक्तिको प्राप्त कर लेते हैं । सिद्ध ( मुक्त ) जीव मुक्त होनेके अनन्तर अनन्तकाल अनाहारक रहते हैं। इस प्रकार उनका अनाहारक रहनेका काल सादि अपर्यवसित है ॥६९। गे पर्याप्तक द्वारकी प्ररूपणा करते हुए जो जीव उपपात काल में ही अपर्याप्त होते हैं, उनका निर्देश करते हैं नारक, देव और असंख्येय वर्षायुष्क (भोगभूमिज ) गर्भज तिथंच व मनुष्य ये उपपात कालमें ही-उत्पन्न होते समय अपर्याप्त होते हैं, ऐसा जानना चाहिए ॥७॥ १. अ तिन्निवि गत्तोमहत्तमेतं वा। २. अ सादी अपज्जवसीयं काले मणाहारणा। ३. अ 'असंखवासाऊ' नास्ति । ४. अ 'य' नास्ति । ५. अतोऽग्रेऽग्रिमगाथायाष्टीकान्तर्गतः 'संख्येयवर्षायुषश्च' पर्यन्तः पाठः स्खलितोऽस्ति ।
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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