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________________ -~६७] सम्यक्त्वविषयभूतस्य जीवतत्त्वस्य प्ररूपणा भव्या आहारकाः पर्याप्ताः, शुक्ला इति शुक्लपाक्षिकाः, सोपक्रमायुषश्चैव सप्रतिपक्षा एते भणिताः। तद्यथा-भव्याश्चाभव्याश्चाहारकाश्चेत्यादि । कैर्भणिता इत्याह। अष्टकर्ममथनैः तीर्थकरैरिति गाथाक्षरार्थः॥ भावार्थ तु स्वयमेव वक्ष्यति ॥६५॥ तत्राद्यद्वारमाह भव्वा जिणेहि भणिया इह खलु जे सिद्धिगमणजोगाउँ । ते पुण अणाइपरिणामभावओ हुति नायव्वा ॥६६॥ भव्या जिनर्भणिता इह खलु ये सिद्धिगमनयोग्यास्तु-इह लोके य एव सिद्धिगमनयोग्याः खलुशब्दस्यावधारणार्थत्वात् तुशब्दोऽप्येवकारार्थ:-योग्या एव । न तु सर्वे सिद्धिगामिन एव । यथोक्तम् "भव्वा वि न सिज्जिस्सन्ति केई" इत्यादि। भव्यत्वे निबन्धनमाह-ते पुनरनादि. परिणामभावतो भवन्ति ज्ञातव्याः। अनादिपारिणामिभव्यभावयोगाद भव्या इति ॥६६॥ विवरीया उ अभव्वा न कयाइ भवन्नवस्स ते पारं। गच्छिसु जंति व तहा तत्तु च्चिय भावओ नवरं ॥६७॥ _ विपरीतास्त्वभव्याः। तदेव विपरीतत्वमाह-न कदाचिद्भवार्णवस्य संसारसमुद्रस्य ते पारं पर्यन्तं गतवन्तो यान्ति वा, वाशब्दस्य विकल्पार्थत्वात् यास्यन्ति वा । तथेति कुतो निमित्ता ___ साठ कर्मोंको निर्मूल कर देनेवाले तीर्थंकरोंके द्वारा ये संसारी जीव यथाक्रमसे अपने प्रतिपक्ष-अभव्य, अनाहारक, अपर्याप्त, कृष्णपाक्षिक और निरुपक्रमायु-के साथ भव्य, आहारक, पर्याप्त, शुक्ल ( शुक्लपाक्षिक ) और सोपक्रमायुके भेदसे दस प्रकारके कहे गये हैं ॥६५॥ आगे भव्यत्व द्वारका निरूपण करते हुए प्रथमतः भव्योंका स्वरूप निर्दिष्ट किया जाता है-- यहां लोकमें जो जीव सिद्धि ( मुक्ति ) प्राप्त करनेके योग्य हैं उन्हें जिन भगवान्ने भव्य कहा है । वे अनादि पारिणामिक भावसे भव्य होते हैं, ऐसा समझना चाहिए। विवेचन-जिन जीवोंमें सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्रको प्रकट करके मोक्ष करनेकी योग्यता है उन्हें भव्य कहा जाता है। वे अनादि पारिणामिक भावभूत भव्यत्वके आश्रयसे भव्य होते हैं, न कि किसी कर्मके उदयादिकी अपेक्षा। यहाँ गाथामें उपयुक्त ' 'खलु' और 'तु' शब्द अवधारणार्थक हैं । इससे यह समझना चाहिए कि जो मुक्ति गमनके योग्य ही होते हैं उन्हें यहां भव्य कहा गया है। इसका अभिप्राय यह है कि मुक्ति गमनके योग्य उन भव्योंमें सभी मुक्तिको जाननेवाले नहीं हैं। आगममें भी यह कहा गया है कि मुक्ति प्राप्त करने योग्य होते हुए कुछ भव्य भी उस मुक्तिको प्राप्त नहीं करेंगे ॥६६॥ ___अब अभव्योंका स्वरूप कहा जाता है पूर्वोक्त भव्योंसे विपरीत अभव्य हैं। वे कभी संसाररूप समुद्रके पार न गये हैं और न जाते हैं। भव्योंके समान वे अभव्य भी उसी भावसे-अनादि पारिणामिक अभव्यत्व भावसे--- होते हैं। विवेचन-जिन जीवोंमें मुक्ति प्राप्त करनेकी योग्यता नहीं है वे अभव्य कहलाते हैं। वैसी योग्यता न होनेसे वे तीनों कालोंमें कभी भी मुक्तिको प्राप्त नहीं कर सकते । गाथामें यद्यपि मुक्ति प्राप्त न करनेके विषयमें अतीत और वर्तमान कालका ही निर्देश किया गया है, फिर भी उसमें प्रयुक्त विकल्पार्थक 'वा' शब्दसे भविष्यत् कालकी भी सूचना कर दी गयी है। इससे यही समझना १. अ जोगो उ ।
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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