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________________ - ५४ ] उपशम-संवेगादिस्वरूपम् इदं च सम्यक्त्वमात्मपरिणामरूपत्वाच्छमस्थेन दुर्लक्ष्यमिति लक्षणमाह-- तं उवसमसंवेगाइएहि लक्खिज्जई उवाएहिं । आयपरिणामरूवं बझेहिं पसत्थजोगेहिं ॥५३॥ तत्सम्यक्त्वमपशमसंवेगादिभिरिति-उपशान्तिरुपशमः, संवेगो मोक्षाभिलाषः, आदिशब्दानिर्वेदानुकम्पास्तिक्यपरिग्रहः । लक्ष्यते चिहन्यते एभिरुपशमादिभिर्बाःिप्रशस्तयोगैरिति संबन्धः। बाह्यवस्तुविषयत्वाबाह्याः, प्रशस्तयोगाः शोभनव्यापारास्तैः । किविशिष्टं तत्सम्यक्त्वम् ? आत्मा परिणामरूपं जीवधर्मरूपमिति ॥५३॥ तथा चाह इत्थं य पॅरिणामो खलु जीवस्स सुहो उ होइ विन्नेओ । किं मलकलंकमुक्कं कणगं झुजि सापलं होइ ॥५४॥ अत्र चे सम्यक्त्वे सति । किम् ?, परिणामोऽध्यवसायः । खलुशब्दोऽवधारणार्थ:-जीवास्थ्य शुभ एव भवति विज्ञेयो न त्वशुभः । अथवा किमत्र चित्रमिति ? प्रतिवस्तूपमामाह-कि मलकलङ्करहितं कनकं भुवि ध्यामलं भवति ? न भवतीत्यर्थः। एकलवापि मलकलङ्कस्थानीयं प्रभूतं क्लिष्टं कर्म, ध्यामलत्वतुल्यस्त्वशुभपरिणामः, स प्रभूते क्लिष्ट कर्मणि क्षीणे जीवस्या न भवति ॥५४॥ प्रशमादीनामेव बाह्ययोगत्वमुपदर्शयन्माह आगे दुर्लक्ष्य आत्मपरिणामरूप उस सम्यक्त्वके अनुमापक कुछ चिह्नोंका निर्देश किया जाता है आत्मपरिणामस्वरूप वह सम्यक्त्व बाह्य प्रशस्त व्यापाररूप उपशम व संवेग आदि . उपायोंसे लक्षित होता है-जाना जाता है ।।५३॥ इसे स्पष्ट करते हुए आगे उसके कारणका निर्देश किया जाता है-- कारण इसका यह है कि इस सम्यक्त्वके होनेपर जीवका परिणाम (व्यापार या आचरण) उत्तम ही होता है-निन्द्य आचरण उसका कभी नहीं होता है। सो ठोक भी है, क्या लोकमें कभी मल-कलंक-कीट-कालिमासे रहित सुवर्ण मलिन हुआ है ? नहीं। विवेचन-प्रकृत सम्यक्त्व अतीन्द्रिय आत्माका परिणाम है, अतः छद्मस्थके लिए उसका परिज्ञान नहीं हो सकता। इससे यहीं उसके परिचायक कुछ बाह्य चिह्नोंका निर्देश किया गया है। वे चिह्न ये हैं-प्रशम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्तिक्य । ये सब बाह्य प्रवृत्ति रूप हैं । जिस जीवके उक्त सम्यक्त्व प्रादुर्भूत हो जाता है उसकी बाह्य प्रवृत्ति प्रशस्त होती है, वह कभी निन्द्य आचरण नहीं करता। इसीसे उक्त प्रशम-संवेगादिरूप प्रवृत्तिको देखकर उसके आश्रयसे किसीके उस सम्यक्त्वका अनुमान किया जा सकता है। इनके होते हुए वह सम्यक्त्व हो भी सकता है और कदाचित् नहीं भी हो सकता है, पर इनके बिना उस सम्यक्त्वका अभाव सुनिश्चित समझना चाहिए । कारण इसका यह है कि वैसी प्रवृत्ति अन्तःकरण पूर्वक न होकर कदाचित् कपटसे भी की जा सकती है ॥५४॥ आगे उन प्रशमादिकोंके स्वरूपका निरूपण करते हुए प्रथमतः प्रशमके स्वरूपको प्रकट किया जाता है १. अलक्खिज्जए। २. अ जोएहि । ३. अ एत्थ । ४. म परिणामः। ५. अ ब्यामलं । ६. 'भ'च' नास्ति ।
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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