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________________ -४१] युक्तिप्रत्युक्तिपुरःसरं सम्यक्त्वप्राप्तिविचारः ग्रहणे एकरूपकमोक्षे च सति वर्षशतेनापि पुरुषशतेन योगो भवति, प्रभूतत्वात् । एवं दान्तिके भावनीयमिति ॥४०॥ इत्थं चोदकेनोक्ते सति गुरुराह गहणमणंताण न किं जायइ समएण ता कहमदोसो । आगम संसाराओ न तहा गंताण गहणं तु ॥४१॥ ग्रहणं कर्मपुद्गलानामादानम् । अनन्तानामत्यन्तप्रभतानाम न किमिति गाथाभङभयाद्वयत्ययः-किं न जायते समयेन, जायत एवेत्यर्थः। समयः परमनिकृष्टः काल उच्यते। यतश्चैवं तत्कथमदोषो दोष एव, शीर्षप्रहेलिकान्तस्यापि राशेः प्रतिदिवसं शतभागमात्रमहाराशिग्रहणेऽल्पतरमोक्षे च वर्षशतादारत एव पुरुषशतेन योगोपपत्तेः। एवं वान्तिकेऽपि भावना कार्या । स्यादेतदागमसंसारान्न तयानन्तानां ग्रहणं तु । आगमस्तावत् “जाव णं अयं जीवे एयइ धेयइ चलह फंदइ ताव णं अट्ठविहबन्धए वा सत्तविहबंधए वा छव्विहबंधए वा एगविहबंधए वा" इत्यादि । सम्भव है। उदाहरणार्थ शीर्ष प्रहेलिकान्त राशि ( असंख्येय कालकी पराकाष्ठा ) में-से प्रतिदिन • सौ पुरुषोंके द्वारा पांच रूपोंके ग्रहण करने और एक रूपके छोड़नेपर उनका संयोग सौ वर्षमें भी उनके साथ नहीं हो सकता है, क्योंकि वे प्रचुर प्रमाणमें बने रहनेवाले हैं । यही प्रक्रिया उन कर्मपुद्गलोंके बन्ध-मोक्षकी भी है । तदनुसार प्रचुर कर्मपरमाणुओंके बने रहनेसे बन्धका अभाव कभी हो नहीं सकता-वह निरन्तर चलता रहनेवाला है ।।४०॥ शंकाकारके इस कथनपर उक्त दोषको असम्भवताका परिहार करते हुए उसकी तदवस्थताको प्रकट करनेपर शंकाकारका पुनः स्पष्टीकरण क्या प्रतिसमयमें अनन्त कर्मपुद्गलों का ग्रहण नहीं होता है ? होता ही है । तब वैसी अवस्थामें पूर्वोक्त बन्धाभाव रूप दोषको कैसे टाला जा सकता है ? नहीं टाला जा सकता हैवह तो तदवस्थ रहनेवाला है। इसपर शंकाकार पुनः कहता है कि आगम व संसारसे भी वैसे अनन्त कर्मपुद्गलोंका ग्रहण सम्भव नहीं है। विवेचन-वादीके द्वारा बहुतर बन्धके स्वीकार करनेपर उस परिस्थितिमें बन्धके अभावका प्रसंग पूर्वमें दिया गया था। इसपर वादोने यह कहकर कि वे कर्मपुद्गल समस्त जीवोंसे अनन्तगुणे हैं और मोक्ष उनका असंख्यांत कालमें ही हो जाता है, उक्त बन्धाभावके प्रसंगका निराकरण किया था। इसपर यहां उस बन्धाभावके प्रसंगको तदवस्थ ठहराते हुए यह कहा जा रहा है कि जब प्रत्येक समय में अनन्त कर्म पुद्गलोंका ग्रहण होता है तब उस अवस्थामें उन कर्म पुद्गलोंकी समाप्ति सुनिश्चित है। अतः कालान्तरमें कर्मपुद्गलोंके अभावमें जो बन्धके अभावका प्रसंग दिया गया है उसका निराकरण नहीं किया जा सकता-वह तदवस्थ रहनेवाला है। शीर्ष प्रहेलिकान्त राशिमें-से भो यदि प्रतिदिन सौवें भागमात्र महाराशिको ग्रहण किया जाता है और अल्पतर राशिको छोड़ा जाता है तो वह सौ वर्षके पूर्व ही सौ पुरुषोंसे सम्बद्ध हो जावेगी व आगेके लिए कुछ नहीं रहेगा। इस उदाहरणसे भी पूर्वोक्त बन्धके अभावका प्रसंग निर्बाध सिद्ध होता है । इसपर वादीका कहना है कि आप जो प्रत्येक समयमें अनन्त पुद्गलोंका ग्रहण बतलाते हे वह असंगत है, क्योंकि उसकी सिद्धि न तो आगमसे होती है और न संसारके स्वरूपसे भी होती है। आगममें यही कहा है कि जबतक यह जीव आता-जाता व चलता-फिरता है तबतक वह आठों प्रकारके, सात प्रकार आयुको छोड़ करके, छह प्रकार आयु और मोह को छोड़ करके १. अमणंताण किं । २. ॐ कालोच्यते ।
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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