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________________ श्रावकप्रज्ञप्तिः [२१लघुनाम यदुदयान्न गुरु पि लघुर्भवति देह इति एकान्ततदभावे सदा निमज्जनोर्ध्वगमनप्रसंगः । उपघातनाम यदुदयादुपहन्यते। परघातनाम यदुदयात्परानाहन्ति । आनुपूर्वीनाम यदुदयादपान्त. रालगतौ नियतदेशमनुश्रेणिगमनम्, नियत एवाङ्गविन्यास इत्यन्ये । उच्छ्वासनाम यदुदयादुच्छ्वासनिःश्वासौ भवतः। आह-ययेवं पर्याप्तिनाम्नः क्वोपयोग इति ? उच्यते-पर्याप्तिः करणशक्तिः उच्छ्वासनामवत एव तन्निवृत्तौ सहकारिकारणं इषुक्षेपणशक्तिमतो धनुर्ग्रहणशक्तिवत् । एवमन्यत्रापि भिन्नविषयता सूक्ष्मधियावसेया। चः समुच्चये इति ॥२१॥ और मधुर रस नामकर्मके भेदसे पांच प्रकारका है। इनमें जिसके उदयसे शरीरमें तिक्त (तीखा) रसका प्रादुर्भाव होता है वह तिक्त रस नामकर्म कहलाता है। इसी प्रकार शेष कटुक आदि चारचार रस नामकर्मोंका भी स्वरूप जानना चाहिए। जिसके उदयसे शरीरमें स्पर्शका प्रादुर्भाव होता. है उसे स्पर्श नामकर्म कहा जाता है। वह कर्कश, मद, गरु. लघ. स्निग्ध, रुक्ष, शीत और उष्ण नामकर्मके भेदसे आठ प्रकारका है। इनमें जिसके उदयसे शरीरमें कर्कश ( कठोर ) स्पर्शका प्रादुर्भाव होता है वह कर्कश नामकर्म कहलाता है। इसी प्रकार शेष मृदु आदि सात स्पर्श नामकर्मोका भी स्वरूप जानना चाहिए। जिसके उदयसे शरीर न तो भारी होता है और न हलका भी उसे अगरुलघु नामकर्म कहते हैं। यदि यह कर्म न होता तो प्राणीके शरीरके निमज्जन-नीचे गिर जाने-अथवा ऊर्ध्वगमनका प्रसंग दुनिवार होता। जिसके उदयसे प्राणी अपने शरीरके भीतर बढ़नेवाले प्रतिजिह्वा, गलवृन्द और चोर दांत आदि अवयवोंके द्वारा पीडाको प्राप्त होता है उसे उपघात नामकर्म कहा जाता है। जिसके उदयसे प्राणी दूसरोंका घात किया करता है वह परघात नामकर्म कहलाता है। जिसके उदयसे प्राणी अपान्तरालगति ( विग्रहगति )में श्रेणिके अनुसार नियत देशको जाता है उसका नाम आनुपूर्वी नामकर्म है। अन्य किन्हीं आचार्योंके मतानुसार जिसके उदयसे निर्माण नामकर्मके द्वारा निर्मित शरीरके अंग-उपांगोंके विनिवेश क्रमका नियमन होता है उसे आनुपूर्वी नामकर्म कहा जाता है। अन्य किन्हीं आचार्योंके अभिमतानुसार आनुपूर्वी या आनुपूयं नामकर्म वह कहलता है जिसके कि उदयसे विग्रहगतिमें वर्तमान जीवके पूर्व शरीरके आकारका विनाश नहीं होता ( स. सि. ८-११ ) । इस प्रकार आनुपूर्वीके लक्षणके विषयमें अनेक उपलब्ध होते हैं। ( देखिए जैन लक्षणावलीमें 'आनुपूर्वी' और 'आनुपूयं ये दो शब्द )। वह आनुपूर्वी नामक नरकगत्यानुपूर्वो, तिर्यग्गत्यानुपूर्वी, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और देवगत्यानुपर्वीके भेदसे चार प्रकारका है । जिसके उदयसे नरकभवके अभिमुख हुए जीवके विग्रहगतिमें पूर्व शरीरका आकार बना रहता है-वह नष्ट नहीं होता है-उसे नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी कहते हैं। गर्गमहर्षि विरचित कर्मविपाक (१२२) के अनुसार नरकायका उदय होनेपर मोडा लेकर गमन करते हए जीवके उस विग्रहवाली गतिमें नरकानुपूर्वीका उदय होता है, ऋजुगतिमें उसका उदय नहीं होता। इसी प्रकार शेष तीन आनुपूर्वियोंके स्वरूपको भी समझना चाहिए। जिस कर्मके उदयसे उच्छ्वास और निःश्वास होते हैं वह उच्छ्वास नामकर्म कहलाता है। यहां शंका उपस्थित होती है कि यदि उच्छ्वास-नि:श्वास उच्छ्वास नामकर्मके उदयसे होते हैं तो फिर उच्छ्वास पर्याप्तिका उपयोग कहां होगा ? इसके उत्तर में कहा जाता है कि पर्याप्ति तो करणशक्ति है जो उच्छ्वास नामकर्मसे युक्त जीवके ही उसकी रचनामें सहकारी कारण है। इसके लिए यह उदाहरण दिया गया है कि जिस प्रकार बाणके चलानेकी शक्तिसे युक्त धनुषधारीके धनुष ग्रहणको शक्ति उसमें सहायक होती है ॥२१॥ अब उस नामकर्मके आतप आदि आगेके अन्य नौ भेदोंका निर्देश किया जाता है
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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