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________________ -१८] सम्यक्त्वप्रसंगे कर्मप्ररूपणा सर्वविरतिमावृण्वन्ति न देशविरतिम्, ईषदर्थेऽपि ईषवृण्वन्ति सर्वविरतिमेव न देशविरतिम् । देशविरतिश्च भूयसी, स्तोंकादपि विरतस्य देशविरतिभावात् । चः समुच्चये। ईषत्परीषहादिसन्निपातज्वलनात्संज्वलनाः, सम्-शब्द ईषदर्थे इति । एवं क्रोध-मान-माया-लोभाः प्रतीतस्वरूपाः । प्रत्येकं चतुर्विकल्पा इति क्रोधोऽनन्तानुबन्ध्यादिभेदाच्चतुविकल्पः, एवं भानादयोऽपीति । स्वरूपं चैतेषामित्थमाहुः जल-रेणु-पुढवि-पव्वयराईसरिसो चउम्विहो कोहो । तिणसलयाकट्ठट्ठिय-सेलत्थंभोवमो माणो ॥१॥ माया-वलेहि-गोमुत्तिमिढसिंगघणंवसमूलसमा। लोहो हलिद्द-खंजण-कद्दम-किमिरागसारित्थो ।।२।। पक्ख-चउम्मास-वच्छरजावजीवाणुगामिणो कमसो। देवनरतिरियनारयगतिसाहणहेयवो भणिया ॥३।। इति अधुना नोकषायभेदानाह इत्थीपुरिसनपुंसगवेयतिगं चेव होइ नायव्वं । हास रइ अरइ भयं सोग दुगंछा य छक्कं ति ॥१८॥ नहीं। कारण इसका यह है कि देशविरति बहुत-सी है, जो अल्पहिंसादिसे भी विरत होता है उसके देशविरतिका सद्भाव रहता है । 'संज्वलन में 'सम्' का ईषत् अर्थ है । तदनुसार जो परोषह आदिके होनेपर चारित्रवान्को भी किंचित् जलाते हैं-~सन्तप्त किया करते हैं-वे संज्वलन क्रोधादि कहलाते हैं। अथवा 'सम' का अर्थ एकोभाव भी होता है, तदनुसार जो चारित्रके साथ एकीभूत होकर जलते हैं-प्रकाशित रहते हैं-अथवा जिनके उदित रहनेपर भी चारित्र प्रकाशमान रहता है-उसे वे नष्ट नहीं करते हैं-उनको संज्वलन क्रोधादि समझना चाहिए। यहां यह शंका हो सकती है कि जब ये संज्वलन क्रोधादि चारित्रको नष्ट नहीं करते हैं तब उन्हें चारित्रमोहके अन्तर्गत क्यों किया गया? इसका उत्तर यह है कि ये प्रमादको प्राप्त (प्रमत्त) संयतके चारित्रमें दोष उत्पन्न करते हैं व यथाख्यात चारित्रको प्रकट नहीं होने देते हैं, इसीलिए उन्हें चारित्रमोहके अन्तर्गत किया गया है। इन संज्वलन क्रोधादिका स्वरूप इस प्रकार कहा गया है-संज्वलन क्रोधका स्वभाव जलकी रेखाके सदृश, प्रत्याख्यान क्रोधका स्वभाव धुलिकी रेखाजैसा, अप्रत्याख्यान क्रोधका स्वभाव पृथिवीकी रेखाके समान और अनन्तानुबन्धो क्रोधका स्वभाव पर्वत ( शिला) की रेखा-जैसा है। उपर्युक्त चार प्रकारके मानका स्वभाव क्रमसे तृणशलाका (तिनका), काष्ठ, हड्डी और पत्थरके स्तम्भके समान उत्तरोत्तर अधिक कठोरताको लिये हुए है। उपर्युक्त चार प्रकारको मायाका स्वभाव क्रमसे खुरपा, गोमूत्र, मेढेके सींग और सघन बांसकी कुटिलताके समान उत्तरोत्तर अधिक कुटिलताको प्राप्त है । इसी प्रकार उक्त चार प्रकारके लोभका स्वभाव क्रमसे हलदो, खंजन पक्षी, कीचड़ और कृमिरागकी गहराईके समान उत्तरोत्तर तीव्रताको लिये हए है। एक पक्ष, चार मास, एक वर्ष और जीवन पर्यन्त प्राणीका पीछा करनेवाल ये संज्वलनादि कषायें क्रमसे देव, मनुष्य, तियंच और नरकगतिको कारण कही गयो हैं ॥१७॥ आगे पूर्वनिर्दिष्ट नोकषाय वेदनीयके नौ भेदोंका निर्देश किया जाता है स्त्रो, पुरुष और नपुंसक ये तीन तथा हास्य, रति, अरति, भय, शोक और जुगुप्सा ये छह इस प्रकार ये नोकषाय वेदनोयके नो भेद जानना चाहिए। १. भ मुत्तमेण्हसिंग घणवंसि० । २. अ भेयं सोय दु० ।
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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