SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 52
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १० श्रावकप्रज्ञप्तिः [ १४ - निद्रादीनां स्वरूपम् - सुबह निद्दा दुहपडिबोहा य निद्दनिद्दा य । पयला होइ ठियस्स उ पयलापयला य चंक्कमओ ॥ अकिलिमाणुवेयणे होइ थी गिद्धी उ। महनिद्दा दिचितियवावारपसाहणी पायम् ॥ अत्थंभूतेनिद्रादिकारणं कर्म अनन्तरं दर्शनविघातित्वाद्दर्शनावरणं ग्राह्यमिति ॥ १३ ॥ दर्शनचतुष्टयमाह - यहि केवलदंसणवरणं चउव्विहं होइ । सायासाय दुभेयं च वेयणिज्जं मुणेयव्वं ॥ १४ ॥ नयनेतरावधिकेवलदर्शनावरणं चतुविधं भवति । आवरण-शब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते । नयनं लोचनं चक्षुरिति पर्यायाः, ततश्च नयनदर्शनावरणं चक्षुर्दर्शनावरणं वेति चक्षुःसामान्योपयोगावरणमित्यर्थः । इतरग्रहणादचक्षुदर्शनावरणं शेषेन्द्रियदर्शनावरणमिति । एवमवधि-केवलयोरपि योजनीयं । सातासातद्विभेदं च वेदनीयं मुणितव्यं - सात वेदनीयमसातवेदनीयं च । आह्लाद निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला, प्रचलाप्रचला और अतिशय भयानक स्त्यानद्धि ये जिन भगवान् के द्वारा पांच निद्राएं कही गयी हैं । विवेचन - जिस निद्रा में प्राणी सुखपूर्वक जग जाता है उसका नाम निद्रा है । जिस निद्रामें प्राणी कठिनता से जगता है उसे निद्रानिद्रा कहते हैं । जिस निद्रामें प्राणी बैठा-बैठा सो जाता है उसे प्रचला कहा जाता है । जिस निद्रामें प्राणी चलते-चलते सो जाता है वह प्रचलाप्रचला कहलाती है | अतिशय संक्लिष्ट कर्मका उदय होनेपर प्राणीको जो निद्रा आती है उसका नाम स्त्यानद्धि है । इस नींदकी अवस्था में प्राणी सोते-सोते उठकर दिन में चिन्तित दुष्कर व्यापारको भी प्रायः सिद्ध करता है । इस प्रकारकी इन पांच निद्राओंके कारणभूत जो कर्म हैं उन्हें यथाक्रमसे उक्त निद्रादि पाँच दर्शनावरण जानना चाहिए। ये सब प्राप्त दर्शन के विनाशक और अप्राप्त दर्शनके चूंकि रोधक हैं, इसलिए इन्हें दर्शनावरणके रूपमें ग्रहण किया गया है || १३॥ आगे चार दर्शनों और उनकी आवारक प्रकृतियोंके निर्देशके साथ साता - असातारूप दो वेदनीय प्रकृतियोंका भी निर्देश किया जाता है नयन ( चक्षु ) दर्शनावरण, इतर ( अचक्षु ) दर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण और केवलदर्शनावरण इस प्रकार ये चार दर्शनों के रोधक चार दर्शनावरण हैं । सातावेदनीय और असातावेदनीयके भेद से वेदनीय कर्मको दो प्रकार जानना चाहिए । विवेचन - गाथा में उपयुक्त नयन शब्द चक्षु वाचक है । चक्षु इन्द्रियजन्य सामान्य उपयोगका जो आवरण किया करता है उसे चक्षुदर्शनावरण कहते हैं। चक्षुसे भिन्न अन्य इन्द्रियोंसे होनेवाले सामान्य उपयोगके आवरक कर्मको अचक्षुदर्शनावरण कहा जाता है। इसी प्रकार अवधि और केवलरूप सामान्य उपयोगके रोधक कर्मको क्रमसे अवधिदर्शनावरण और केवलदर्शनावरण जानना चाहिए | धवला (पु. ६, पृ. ३२ आदि) में आ. वीरसेनके द्वारा दर्शन व उसके इन भेदोंका स्वरूप इस प्रकार निर्दिष्ट किया गया है-ज्ञानके उत्पादक प्रयत्न से संबद्ध आत्मसंवेदनका नाम दर्शन है, जिसे आत्मविषयक उपयोग कहा जा सकता है। चक्षु इन्द्रियजन्य ज्ञानके उत्पादक प्रयत्नसे १. अत्रेत्थंभूत । २. अ अह्लाद ।
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy