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________________ सिद्धानां शाश्वत्सुखम् इष्टभार्यापरिष्वक्तः तेद्रतान्तेऽथवा नरः । सर्वेन्द्रियार्थं संप्राप्त्या सर्ववाधानिवृत्तिजम् ॥६॥ द्वेदयति संहृद्यं प्रशान्तेनान्तरात्मना । मुक्तात्मनस्ततोऽनन्तं सुखमाहुर्मनीषिणः ॥७॥ इत्यादीति ॥ ३९८ ॥ संसारसुखमप्यौत्सुक्य विनिवृत्तिरूपमेवेत्युक्तमिह विशेषमाह्मित्रा निवत्ती सा पुण आवकहिया मुणेयव्वा । भावा पुणो वि नेयं एतेणं तई नियमा ।। ३९९ ॥ इयमिन्द्रियविषयभोग पर्यन्तकालभाविनी । इत्वरा अल्पकालावस्थायिनी । निवृत्तिरौत्सुक्यव्यावृत्तिः । सा पुनः सिद्धानां संबन्धिनी औत्सुक्यविनिवृत्तिर्यावत्कथिका सार्वकालिकी । मुणितव्या ज्ञेया, पुनरप्रवृत्तेस्तथाभावात्पुनरपि प्रवृत्तेः भूयोऽपि । नेयमिन्द्रियविषयभोगपर्यन्त कालभाविनी, एकान्तेन सर्वथा निवृत्तिरेवौत्सुक्यस्य बीजाभावेन पुनस्तत्प्रवृत्त्यभावात् असौ सिद्धानां संबन्धिनी औत्सुक्य विनिवृत्तिः नियमादेकान्तेन निवृत्तिरेव ततश्च महदेतत्सुखमिति ॥ ३९९ ॥ उपसंहरन्नाह - - ४०० ] अणुवत्ती संगयं हंदि निट्टियद्वाणं । अत्थि सुहं सद्धेयं तह जिणचंदागमाओ य ॥ ४००॥ २३१ पत्नीसे आलिंगित होता है तब वह परिमित समय के लिए निराकुल सुखका अनुभव करता है । इस प्रकार सब ( पाँचों) इन्द्रियोंके विषयोंको प्राप्त करके सब प्रकारकी बाधासे रहित हो जानेपर जिस निराकुल सुखका अनुभव मनुष्य करता है उसकी अपेक्षा मुक्तात्माके अनन्तगुणा सुख होता है । इसका कारण यह है कि संसारी प्राणीको अभीष्ट - इन्द्रियविषयोंके उपभोगसे जो सुख प्राप्त होता है वह उन विषयोंके संयोग तक सीमित है, तत्पश्चात् उन अभीष्ट विषयोंका वियोग हो जानेपर वह पुनः उनकी प्राप्तिके लिए व्याकुल होता है । इस प्रकार संसारी जीवोंका वह सुख साता वेदनीय आदि पुण्य प्रकृतियोंके उदय तक रहता है, पश्चात् वह नियमसे विनष्ट होता है । परन्तु समस्त कर्मोसे निर्मुक्त हुए सिद्धोंका वह निर्बाध सुख अविनश्वर होकर अनन्तकाल तक रहता है ||३९८ || ऊपर संसारसुखको जो उत्सुकताकी निवृत्तिरूप कहा गया है उसके विषयमें आगे कुछ विशेषता प्रकट की जाती है सांसारिक सुखको जनक यह जो उत्सुकताको निवृत्ति है वह इत्वरा - विषयोपभोगके अन्त तक कुछ थोड़े समय तक ही बहनेवाली है, परन्तु सिद्धों के सुखसे सम्बद्ध जो वह उत्सुकताकी निवृत्ति है वह यावत्कथिक - सदा रहनेवाली - जानना चाहिए। कारण यह कि सांसारिक सम्बन्धी वह उत्सुकता पुनः प्रवृत्त होती है, परन्तु यह सिद्धोंके सुखसे सम्बद्ध यह उत्सुकता नियमतः फिरसे प्रवृत्त नहीं होती, क्योंकि सिद्धोंके उस उत्सुकताका बीजभूत कर्म नष्ट हो चुका है। इसीलिए सिद्धोंके सुखको ही यथार्थ सुख समझना चाहिए ॥ ३९९ ॥ आगे इसका उपसंहार किया जाता है १. अपरिकृष्टतं ।
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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