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________________ २२९ -३९८] सिद्धानां शाश्वत्सुखम् एतदभावे सुखमाह रागाइविरहओ जं सुक्खं जीवस्स तं जिणो मुणइ । न हि सन्निवायगहिओ जाणइ तदभावजं. सातं ॥३९५॥ रागादिविरहतो रागद्वेषमोहाभावेन । यत्सौख्यं जीवस्य संक्लेशजितम् । तज्जिनो मुणति अर्हन्नेव सम्यग्विजानाति, नान्यः। किमिति चेन्न हि यस्मात्सन्निपातगृहीतः सत्येव तस्मिन् । जानाति तदभावजं सन्निपाताभावोत्पजम् । सातं सौख्यमिति । अतो रागादिविरहात्सिद्धानां सौख्यमिति स्थितं जन्मादीनामभावाच्चेति यथोक्तं तथावस्थाप्यते ॥३९५॥ तत्रापि जन्माद्यभावमेवाह दड्ढंमि जहा बीए न होइ पुण अंकुरस्स उप्पत्ती । तह चेव कम्मबीए भवंकुरस्सावि पडिकुटा ॥३९६॥ . दग्धे यथा बोजे शाल्यादौ । न भवति पुनरङ्करस्योत्पत्तिः शाल्याविरूपस्य । तथैव कर्मबीजे दग्धे सति । भवांकुरस्याप्युत्पत्तिः प्रतिकुटा, निमित्ताभावादिति ॥३९६॥ जंमाभावे न जरा न य मरणं न य भयं न संसारो। एएसिमभावाओ कहं न सुक्खं परं तेसिं ॥३९७।। जन्माभावे न जरा वयोहानिलक्षणा, आश्रयाभावात् । न च मरणं प्राणत्यागरूपम् तदभावादेव । न च भयमिहलोकादिभेदम्, निबन्धनाभावात् । न च संसारः, कारणाभावादेव । एतेषां जन्मादीनामभावात्कथं न सौख्यं परं तेषां सिद्धानाम् ? किन्तु सौख्यमेव, जन्मादीनामेव दुःखरूपत्वादिति ॥३९७॥ अव्याबाधमिति यदुक्तं तदाह अव्वाबाहाउ च्चिय सयलिंदियविसयभोगपज्जते । उस्सुक्कविणिवत्तीइ संसारसुहं व सद्धेयं ॥३९८॥ उक्त राग, द्वेष एवं मोहके हट जानेसे जो जोवको सुख प्राप्त होता है जिन-राग-द्वेषके विजेता अरहन्त-ही जानते हैं। ठीक ही है, सन्निपात रोगसे ग्रस्त जीव उसके बने रहनेपर उसके दूर हो जानेसें प्राप्त होनेवाले सुखको नहीं जान पाता है-उसका अनुभव तो उस रोगके दूर हो जानेपर ही उसे हो सकता है ।।३९५|| जिस प्रकार बीजके जल जानेपर अंकुरको उत्पत्ति फिर नहीं हो सकती है उसी प्रकार कर्मरूप बीजके जल जानेपर-उसके आत्मासे पृथक् होकर निर्जीर्ण हो जानेपर-संसाररूप अंकुरकी उत्पत्ति भी निषिद्ध है-कमरूप निमित्तके न रहनेपर संसार-परिभ्रमण भी सम्भव नहीं रहता ॥३९६॥ जन्मका अभाव हो जानेपर न जरा ( बुढ़ापा) सम्भव है, न मरण सम्भव है, न भय सम्भव है, और न संसार सम्भव है। इन जन्म, जरा, भय और संसारका अभाव हो जानेपर उन सिद्धोंके वह उत्कृष्ट --निर्बाध व अविनश्वर-सुख कैसे न होगा? अवश्य होगा ॥३९७॥ १. जं। २. अ तयभावजं । ३. अ तेषां जन्मादीनाम् किं तु । ४. अ दुःक्खत्वादिति । ।
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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