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________________ - ३६९] यात्राविधिः २१९ साधूनां श्रावकाणां चोक्तशब्दार्थानाम् । सामाचारी व्यवस्था। कदा ? विहरणकाले विहरणसमये । किविशिष्टत्याह यत्र स्थाने सन्ति चैत्यानि वन्दयन्ति तत्र संघ चतुर्विधमपि प्रणिधानं कृत्वा स्वयमेव वन्दत' इति ॥३६६॥ पढमं तओ य पच्छा वंदति सयं सिया ण वेल त्ति । पठम चिय पणिहाणं करंति संघमि उवउत्ता ॥३६७॥ प्रथममिति पूर्वमेव सधं वन्दयन्ति। ततः पश्चात्सङ्घवन्दनोत्तरकालम् । वन्दन्ते स्वयमात्मना आत्मनिमित्तमिति । स्यान्न वेलेति स्तेनादिभय-सार्थगमनादौ तत्रापि प्रथममेव वन्दने प्रणिधानं कुर्वन्ति संघविषयमुपयुक्ताः संघं प्रत्येतद्वन्दनं संघोऽयं वन्दत इति ॥३६७॥ पच्छा कयपणिहाणा विहरंता साहूमाइ दळूण । जंपति अमुगठाणे देवे वंदाविया तुम्मे ॥३६८॥ पश्चात्तदुत्तरकालम् । कृतप्रणिधानाः सन्तस्तदर्थस्य संपादितत्वाद्विहरन्तः सन्तः साध्वादीन दृष्ट्वा साधु साध्वी श्रावकं श्राविकां वा। जल्पन्ति व्यक्तं च भणन्ति । किम् ? अमुकस्थाने मथुरादौ । देवान् वन्दितां यूयमिति ॥३६८॥ ते वि य कयंजलिउडा सद्धा-संवेगपुलइयसरीरा । अवणामिउत्तमंगा तं बहु मन्नंति सुहझाणा ॥३६९॥ तेऽपि च साध्वादयः। कृताञ्जलिपुटा रचितकरपुटाञ्जलयः। श्रद्धा-संवेगपुलकितशरीराः श्रद्धाप्रधानसंवेगतो रोमाञ्चितवपुषोऽवनामितोत्तमाङ्गाः सन्तस्तद्वन्दनं बहु मन्यन्ते शुभध्यानाः प्रशस्ताध्यवसाया इति ॥३६९॥ उभयोः फलमाह विहारके समयमें साधुओं और श्रावकों की सामाचारी-विधिव्यवस्था-यह है कि जहां चैत्य हों वहां संघको वन्दना कराते हैं ।।३६६।। किस क्रमसे वन्दना करे-करावे प्रथमतः संघको वन्दना कराते हैं और तत्पश्चात् स्वयं वन्दना करते हैं। यदि समय न हो-चोर आदिका भय हो अथवा सार्थ ( संघ ) जा रहा हो तो उपयोग युक्त होकर संघके विषयमें प्रथम ही प्रणिधान करते हैं-यह संघ वन्दना कर रहा है, ऐसा अन्तःकरणमें विचार करते हैं ॥३६७।। पश्चात् प्रणिधान करके-उधर ध्यान देते हुए साधु आदि-साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका–को देखकर यह कहे कि अमुक (मथुरा) स्थानमें तुम्हें देवोंकी वन्दना करायी गयी है ॥३६८|| तब वे भी हाथोंको जोड़कर श्रद्धा और संवेगसे रोमांचित शरीरसे संयुक्त होते हुए मस्तकको नमाते हैं और प्रशस्त ध्यानसे युक्त होकर उस वन्दनाको बहुत मानते हैं ।।३६९।। आगे वन्दनाके निवेदक और तदनुसार उसमें उपयोग लगानेवाले दोनोंको उससे जो फल प्राप्त होता है उसका निर्देश किया जाता है १. अ वंदयत । २. अ बंदयति ततः संघ । ३. अ वंदेते । ४. अ देवा वंदता ।
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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