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________________ '. १८८ श्रावकप्रज्ञप्तिः [३१३एतदेव अतिचारजातं विधि-प्रतिषेधाभ्यां स्पष्टयति सामाइयं ति काउं परचिंतं जो उ चितई सड्ढो । अवसट्टोवगओ निरत्थयं तस्स सामइयं ॥३१३॥ सामायिकमित्येवं कृत्वा आत्मानं संयम्य । परचिन्तां संसारे इतिकर्तव्यताविषयाम् । यस्त चिन्तयति श्रावकः। आर्तवशार्तश्च स उपगतश्चेति समासः, आर्तध्यानसामर्थ्येनातः, उप सामीप्येन गतो भवस्येति भावार्थः। निरर्थकं तस्य सामायिकं अनात्मचिन्तावतो निःफलं सामायिकमित्यर्थः। आत्मचिन्ता च सद्धयानरूपेति (१) ॥३१३॥ उक्तो मनोदुःप्रणिधानविधिः, सांप्रतं' वाग्दुःप्रणिधानमाह कयसामइओ पुवि बुद्धीए पेहिऊण भासिज्जा । सइ अणवज्जं वयणं अन्नह सामाइयं न भवे ॥३१४॥ कृतसामायिकः सन् श्रावकः। पूर्वमाद्यम्। बुद्धया प्रेक्ष्यालोच्य। भाषेत ब्रूयात् । सदा निरवद्यवचनम्, प्रणालिकयापि न कस्यचित्पीडाजनकम् । अन्यथानालोच्य भाषमाणस्य । सामा. यिकम् न भवेत्, वाग्दुःणिहितत्वादिति (२) ॥३१४॥ भणितो वाग्दुःप्रणिधानातिचारः, सांप्रतं काय[दुः]प्रणिधानमुररीकृत्याह अनिरिक्खियापमज्जिय थंडिल्ले ठाणमाइ सेवंतो। हिंसाभावे वि न सो कडसामइओ पमायाओ ॥३१५॥ . आगे इन अति चारोंको स्पष्ट करते हुए प्रथमतः मनके दुष्प्रणिधानका निषेध किया जाता है___'सामायिक' इस प्रकार करके-अपनेको संयमित करके-जो श्रावक आर्त-रौद्ररूप . दुनिके वशीभूत होकर परचिन्ताको अन्य सांसारिक करणीय कार्योंका-चिन्तन करता है उसकी सामायिक निरर्थक है। विवेचन-सामायिकमें सर्वसावध योगका त्याग करना आवश्यक है। पर यदि कोई श्रावक उस सामायिकमें स्थित होकर क्रोध, लोभ व ईर्ष्या आदिके वश होता हुआ आत्मस्वरूपसे भिन्न अन्य आरम्भादि विषयक सावध कार्यका चिन्तन करता है तो यह मनदष्प्रणिधान नामक प्रथम अतिचार होगा, जिसका त्याग करना आवश्यक है। यदि वह आतं व रौद्र ध्यानके वशं मनदुष्प्रणिधानको नहीं छोड़ सकता है तो उसका सामायिक करना व्यर्थ होगा ॥३१३।। अब क्रमप्राप्त दूसरे वचनदुष्प्रणिधानके स्वरूपको दिखलाते हुए उसके परित्यागको ओर ध्यान दिलाया जाता है ___नो सामायिकके करनेमें उद्यत है उसे पूर्व में बुद्धिसे विचार कर सदा निर्दोष भाषण करना चाहिए। अन्यथा-यदि वह निरवद्य वचनका उच्चारण नहीं करता है तो वह उसको यथार्थ सामायिक न होकर वचन दुष्प्रणिधान नामक दूसरे अतिचारसे मलिन होगी ॥३१४।। आगे कायदुष्प्रणिधानसे भी सामायिकको निरर्थकता प्रकट की जाती है १. अ अतोऽग्रेऽनिमगाथायाः (३१५) उत्थानिकागत'सांप्रतं' पर्यन्तः संदर्भो न लिखितोऽस्ति ।
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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