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________________ १८३ -३०४] प्रथमशिक्षापदे साधु-श्रावकयोर्भेदप्रदर्शनम् तथा गतिभैदिकेत्याह पंचसु ववहारेणं जइणो सड्ढस्स चउसु गमणं तु । गइसु चउपचमासु चउसु यं अन्ने जहाकमसो ॥३०३॥ व्यवहारेण सामान्यतो लोकस्थितिमङ्गीकृत्य पञ्चसु यतेः साधोः, श्रावकस्य चतसृषु गमनमिति । कासु ? गतिषु नारकतिर्यड्नरामरसिद्धिरूपासु । चउ.पंचमासु चउसु य अन्ने जहाकमसोअन्ये त्वभिदधति साधोः सुरगतौ मोक्षगतौ च श्रावकस्य चतसृष्वपि भवान्तर्गतिष्विति द्वारम् ॥३०३॥ कषायाश्च भेदका इत्याह चरमाण चउन्हं पि हु उदओऽणुदओ व हुज्जे साहुस्स । इयरस्स कसायाणं दुवालसट्ठाणमुदओ उ ॥३०४॥ संज्वलनानां चतुर्णामपि क्रोधादीनां कषायाणामुदयोऽनुदयो वा भवेत्साधोरुदयश्चतुस्त्रिद्वयेकभेदः, अनुदयोऽप्येवं छद्मस्थ-वीतरागादेर्भावनीयः। इतरस्य श्रावकस्य । कषायाणां द्वादशानामष्टानां चोदय एवेति-यदा द्वादशानां तदा अनन्तानुबन्धिवर्जा गृहान्ते, एते चाविरतस्य विजेयाः। यदा त्वष्टानां तदानन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानवर्जाः, एते च विरताविरतस्येति द्वारम् ॥३०४॥ अब गतिको अपेक्षा साधु और श्रावकमें भेद दिखलाया जाता है व्यवहारसे साधुका गमन पांचों-नारक, तिथंच, मनुष्य, देव और सिद्ध इन पांचोंगतियोंमें तथा श्रावकका सिद्धगतिको छोड़कर चार गतियोंमें होता है। अन्य कितने ही आचार्योंके मतानुसार साधु और श्रावकका गमन यथाक्रमसे चोथो ( देवगति ) व पांचवीं (सिद्धगति ) में तथा चारों ही गतियों में होता है। अभिप्राय यह कि उनके मतानुसार साधु देवगतिमें जाता है अथवा मुक्तिको प्राप्त कर लेता है। परन्तु श्रावक अपने परिणामके अनुसार यथासम्भव नारक आदि चारों गतियोंमें जा सकता है ।।३०३।। आगे कषायको अपेक्षा उन दोनोंमें भेद प्रकट किया जाता है साधुके अन्तिम चारों ही का-संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभ का-उदय अथवा अनुदय होता है। परन्तु श्रावकके बारह और आठ कषायोंका उदय होता है। विवेचन-इसका अभिप्राय यह है कि प्रमत्तसंयतसे लेकर अपूर्वकरणसंयत तक इन गुणस्थानोंमें संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभ इन चारों अन्तिम कषायोंका उदय रहता है। आगे अनिवृत्तिकरणसंयत नामक नौवें गुणस्थानमें किसीके उक्त चारों संज्वलन कषायोंका, किसीके क्रोधको छोडकर शेष तीनका. किसीके संज्वलन माया और लोभ इन दोका तथा किसीके एक संज्वलन लोभका ही उदय रहता है। आगे दसवें गुणस्थानमें सूक्ष्मसाम्परायसंयतके एकमात्र संज्वलन लोभका उदय रहता है। ग्यारहवें गणस्थानमें उपशान्त कषाय संयतके उनका उपशम हो जानेके कारण चारोंका ही अनुदय रहता है। आगे क्षीणकषाय, सयोगकेवली और अयोगकेवलीके उनका क्षय-निर्मूल विनाश-हो जानेके कारण चारोंका अनुदय रहता है। १. अचइपंचमासु य चउस य । २. अ भवांतगतास्थितिद्वारं। ३. अ चरिमाण चउण्डं। ४. अ होज्ज । ५. अ सट्ठाण सो उदउ । ६. अ चिरमाणां [चरमाणं ] संज्वलनानां । ७. अ यदा द्वादशादयश्चतुस्त्रिद्वयेकभेदः अनुदयोप्येवं एते ।
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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