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________________ १७० श्रावकप्रज्ञप्तिः [२८६ - तत्र भोजनतोऽभिषित्सयाह सचित्ताहारं खलु तप्पडिबद्धं च वज्जए सम्मं । अप्पोलिय-दुप्पोलिय-तुच्छोसहिभक्खणं चेव ॥२८६॥ सचित्ताहारं खलु सचेतनं मूल-कन्दादिकम् । तत्प्रतिबद्धं च वृक्षस्थगुन्द-पक्वफलादिलक्षणम् । वर्जयेनिहरेत् सम्यक् प्रवचनोक्तेन विधिना । तथा अपक्व- दुःपक्व-तुच्छौषधिभक्षणं च, वर्जयेदिति वर्तते । तत्रापक्वाः प्रसिद्धाः दुःपक्वास्त्वर्धस्विन्नाः, तुच्छास्त्वसारा मुद्गफलीप्रभृतय इति ॥२८६॥ उक्ता भोजनातिचाराः, सांप्रतं कर्माश्रित्याह इंगाली-वण-साडी-भाडी-फोडीसु वज्जए कम्मं । वाणिज्जं चेव दंत-लक्ख-रस-केस-विसविसयं ॥२८७॥ अङ्गार-वन-शकट-भाटक-स्फोटनेषु एतद्विषयम् । वर्जयेत् कर्म न कुर्यात् । तत्राङ्गारउपभोग और जो पुनः-पुनः किया जाता है उसे परिभोग कहा जाता है। अन्य कितने ही आचार्य कर्मपक्षमें प्रकृत उपभोग-परिभोगकी योजना नहीं करते हैं। इसका उपन्यास उपभोग-परिभोगके कारण स्वरूपसे किया गया है । इस व्रतका भी परिपालन अतिचारोंसे रहित करना चाहिए, इसी अभिप्रायसे गाथाके उत्तरार्धमें भोजन और कर्म इन दोनोंके पृथक्-पृथक् अतिचारोंके संक्षेपमें कहनेकी प्रतिज्ञा की गयी है ।।२८५॥ उनमें आगे भोजनकी अपेक्षा उसके अतिचारोंका निर्देश किया जाता है सचित्त आहार, सचित्त प्रतिबद्धाहार, अपक्वभक्षण, दुष्पक्वभक्षण और तुच्छ औषधिभक्षण, ये भोजनको अपेक्षा उसके पांच अतिचार कहे गये हैं। इनका आगमोक्त विधिके अनुसार परित्याग करना चाहिए। 'विवेचन-(१) कन्द व मूली आदि जो भोज्य पदार्थ चेतनासे सहित होते हैं उनका नाम सचित्त आहार है। (२) वृक्षसे सम्बद्ध गोंद और पके फल आदिको सचित्त वृक्षसे सम्बद्ध होनेके कारण सचित्त समझना चाहिए । वृक्षसे विभक्त होनेपर वे अचित्त माने गये हैं। (३) जो भोज्य पदार्थ पका न हो-कच्चा हो-उसे अपक्व आहार जानना चाहिए। (४) जो भोज्य पदार्थ अधपका हो वह दुष्पक्व कहलाता है। (५) मूंगको फलियों आदिको तुच्छ औषधि-निःसार वस्तु-समझना चाहिए। ये भोजनकी अपेक्षा उपभोग परिभोगपरिमाणवतके पांच अतिचार माने गये हैं। आगममें जिस प्रकारसे इनके स्वरूपका विधान किया गया है तदनुसार ही उनका परित्याग करना चाहिए । अन्यथा, स्वीकृत वह व्रत नियमसे मलिन होनेवाला है ॥२८६।। __आगे उक्त उपभोग-परिभोग परिमाणव्रतके विषयमें जो कर्मविषयक १५ अतिचार कहे गये हैं उनमें प्रथमतः १० अतिचारोंका निर्देश किया जाता है ____ अंगारकर्म, वनकर्म, शकटकर्म, भाटककर्म, स्फोटनकम, दन्तवाणिज्य, लाक्षावाणिज्य, रसवाणिज्य, केशवाणिज्य और विषविषयक वाणिज्य; इनका परित्याग करना चाहिए। विवेचन-इनका स्वरूप वृद्धसम्प्रदायके अनुसार इस प्रकार है-(१) अंगारकर्म-अग्निको प्रज्वलित कर कोयला, लोहे आदिके उपकरण बनाये जाते हैं। इनमें छह कायके जोवोंका घात १. अ अण्पउलियदुष्पउलिय । २. अ 'एतद्विषयं' इत्यतोऽग्रेऽग्रिम 'विषविषयं' पर्यन्तः पाठः स्खलितोऽस्ति ।
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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