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________________ २७८ ] पञ्चमाणुव्रतप्ररूपणा भेदेन विशेषेण । क्षेत्र- वास्तु - हिरण्यादिषु भवति ज्ञातव्यम् । किम् ? इच्छापरिमाणमिति वर्तते । तत्र क्षेत्रं सेतु केतु च उभयं च । वास्त्वगारं खातमुच्छ्रितं खातोच्छ्रितं च । हिरण्यं रजतमघटितमादिशब्दाद्धन-धान्यादिपरिग्रहः । एतदचित्तविषयम् । द्विपदादिषु चेत्येतत्सचित्तविषयम् - द्विपद-चतुः पदापदादिषु दासी हस्ति वृक्षादिषु सम्यक् प्रवचनोक्तेन विधिना । वर्जनतस्य पञ्चमाणुव्रतविषयस्य पूर्वोक्तम् । “उपयुक्तो गुरुमूले" इत्यादिना ग्रन्थेनेति ॥ २७६ ॥ पडिवज्जिऊण य वयं तस्सइयारे जहाविहिं नाउं । संपुन्नपालणट्ठा परिहरियव्वा पयत्तेणं ||२७७|| पूर्ववत् ॥ २७७॥ खित्ताइ - हिरन्नाई - धणाइ - दुपयाइ - कुवियगस्स तहा । सम्मं विसुद्धचित्तो न पमाणाइक्कमं कुज्जा ॥२७८॥ १६३ विवेचन- इनमें क्षेत्र ( खेत ) सेतु, केतु और उभयके भेदसे तीन प्रकारका है। जो खेत अरहट व नहर आदिके द्वारा सिंचित होकर धान्यको उत्पन्न किया करते हैं वे सेतु क्षेत्र कहलाते हैं । जो केवल स्वाभाविक वर्षाके जलसे सिंचित होकर धान्यको उत्पन्न किया करते हैं उन्हें केतु क्षेत्र कहा जाता है तथा जो स्वाभाविक वर्षाके, अरहट व नहर आदिके जलसे सिंचित होकर धान्यको उत्पन्न करते हैं उन्हें उभय (सेतु-केतु ) क्षेत्र कहते हैं । इसी प्रकार खात, उच्छ्रित और खातोच्छ्रितके भेदसे वास्तु भी तीन प्रकारका है। वास्तु नाम गृहका है। इनमें भूमिके भीतर तलघरके रूपमें जो मकान बनाये जाते हैं उन्हें खात वास्तु कहते हैं, जिन भवनोंका निर्माण भूमि के ऊपर कराया जाता है वे उच्छित वास्तु कहलाते हैं । तथा भूमिगत तलघरके ऊपर जो भवन निर्मित होते हैं उनका नाम खातोच्छ्रित वास्तु है । हिरण्य नाम चाँदीका है । वह घटित और अघटितके भेदसे दो प्रकारकी है। इनमे जो आभूषणोंके रूपमें परिणत होती है उसे घटित चांदी कहा जाता है तथा जो अवस्था विशेषसे राहत चांदो सामान्य स्वरूपमें अवस्थित होती है उसे अघटित कहा जाता है । 'हिरण्यादि' म यहां आदि शब्दसे धन-धान्यादिको ग्रहण करना चाहिए। यह सब क्षेत्रादि रूप परिग्रह अचित्तके अन्तर्गत है । गाथोक्त 'द्विपदादि' पदसे अचित्त परिग्रहकी सूचना की गयी है । वह द्विपद, चतुष्पद और अपदके भेदसे तीन प्रकारकी है । दासीदास आदि द्विपद सचित्त परिग्रह हैं। हाथी, घोड़ा, गाय, भैंस और बकरी आदि चतुष्पद सचित्त परिग्रह हैं । इनके अतिरिक्त पांवोंसे रहित वृक्ष-बेल आदिको अपद सचित्त परिग्रह समझना चाहिए | पांचवें अणुव्रत के धारक श्रावकको उपर्युक्त सभी सचित्त-अचित्त वस्तुओंका परिमाण आगमोक्त (१०८) के अनुसार समीचीनतया करना चाहिए || २७६ ॥ आगे व्रतको स्वीकार कर उसके पूर्ण रूपसे परिपालनके लिए प्रेरणा की जाती है व्रतको स्वीकार करके और उसके अतिचारोंको आगमोक्त विधिके अनुसार जान करके उसके पूर्णतया परिपालन के लिए प्रयत्नपूर्वक उन अतिचारोंका परित्याग करना चाहिए || २७७|| उक्त क्षेत्र आदिके स्वीकृत प्रमाणका अतिक्रमण करनेपर वे व्रतको मलिन करनेवाले अतिचार होते हैं, इसकी सूचना की जाती है— क्षेत्र आदि, हिरण्य आदि, धन आदि, द्विपद आदि और कुप्य इनके प्रमाणका अतिक्रमण नहीं करना चाहिए |
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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