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________________ १६० श्रावकप्रज्ञप्तिः ॥ २७१ - परदारपरित्यागः परकलत्रपरिहारः, न वेश्यापरित्यागः । स्वदारसंतोषश्च स्वकलत्रसेवनमेव, न वेश्यागमनमपि चतुर्थमित्येतच्चतुर्थमणुव्रतं । परदारमपि द्विविधमौदारिक-वैक्रियभेदेन । औवारिकं स्यादिषु वैक्रिय विद्याधर्यादिष्विति ॥२७॥ · वज्जणमिह' पुव्वुत्तं पावमिणं जिणवरेहिं पन्नत्तं । रागाईण नियाणं भवपायवबीयभूयाणं ॥२७१॥ वर्जनमिह पूर्वोक्तं उपयुक्त इत्यादिना ग्रन्थेन । किमेतद्वय॑ते इत्याशङ्कयाह-पापमिदं परदारासेवनं जिनवरैःप्रज्ञप्तं तीर्थकरगणधरैः प्ररूपितमिति । किविशिष्टं रागादीनां निदानं कारणम् । किविशिष्टानां भव-पादपबीजभूतानां रागादीनामिति ॥२७१॥ पडिवज्जिऊण य वयं तस्सइयारे जहाविहिं नाउ। संपुनपालणट्ठा परिहरियव्वा पयत्तेणं ॥२७२।। पूर्ववत् ॥२७२॥ अतीचारानाह...इत्तरियपरिग्गहियापरिगहियागमणणंगकीडं च । परविवाहक्करणं कामे तिब्वाभिलासं च ॥२७३॥ विवेचन-परस्त्रीके परित्यागसे यहां अन्यकी स्त्रीके परित्यागका अभिप्राय रहा है, वेश्याके परित्यागका अभिप्राय नहीं रहा। पर स्वस्त्रीसन्तोषसे यहां वेश्याके परित्यागका अभिप्राय तो रहा ही है, साथ ही अपनी पत्नीसे भिन्न अन्य सभी स्त्रियोंके परित्यागका रहा है। इसमें जो कुछ विशेषता है उसका स्पष्टीकरण अतिचारोंके प्रसंगमें किया जायेगा। औदारिक और वैक्रियिकके भेदसे परस्त्रीके यहां दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं। जो परस्त्रियां औदारिक शरीरकी धारक होती हैं वे औदारिक परस्त्री मानी गयी हैं। तथा जो विद्याधरी आदि विक्रियानिर्मित शरीरको धारण करनेमें समर्थ होती हैं उन्हें वैक्रियिक परस्त्री कहा जाता है। परस्त्रीका परित्याग करनेवाला ब्रह्मचर्याणुव्रती इन दोनों प्रकारको परस्त्रियोंका त्यागी होता है ।।२७०।। ___ आगे इस परस्त्रीसमागमको पाप समझकर छोड़ देनेकी प्रेरणा की जाती है जो रागादिक संसाररूप वृक्षके बीजभूत हैं-उसकी परम्पराको वृद्धिंगत करनेवाले हैंउनके कारणस्वरूप परस्त्रीसमागमको जिनेन्द्र देवने पाप कहा है। अतः आत्महितैषी ब्रह्मचर्याणुव्रतीको इसका पूर्व गा.१०८ में निर्दिष्ट की गयी विधिके अनुसार परित्याग करना चाहिए ॥२७१।। अब उसके अतिचारोंके छोड़ देनेको प्रेरणा करते हुए उसके पांच अतिचारोंका निर्देश किया जाता है. व्रतको स्वीकार करके व उसके अतिचारोंको जानकर आगमोक्त विधिके अनुसार उसका पूर्णतया परिपालन करने के लिए प्रयत्नपूर्वक उनका परित्याग करना चाहिए ॥२७२॥ वे अतिचार ये हैं इत्वरपरिगृहीतागमन, अपरिगृहीतागमन, अनंगक्रीड़ा, परविवाहकर और कामविषयक तीव्र अभिलाषा। १.म वज्जणविह (अ अतोऽग्रे टीकागत 'वर्जनमिह' पर्यन्तः पाठः स्खलितोऽस्ति । २. अ भवपादपदपबीजभूतानामिति ।।.अ इत्तरपरिग्रहियाअपरिग्रहिया थणंगकाडा य। ४. अ परवीवाहयकरणं । ५. अलासो या।
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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