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________________ १८ . श्रावकप्रज्ञप्तिः कितने ही दि. ग्रन्थों में-जैसे कार्तिकेयानुप्रेक्षा, उपासकाध्ययन, चारित्रसार, अमितगतिश्रावकाचार, वसुनन्दिश्रावकाचार और सागारधर्मामृत आदि में-उनका विवरण उपलब्ध होता है। श्वेता. सम्प्रदाय में इनका निर्देश संक्षेप में प्रस्तुत श्रा. प्र. में किया गया है (३७६)। वहाँ टीका में 'दसण-वय' इत्यादि रूप से उनसे सम्बद्ध एक गाथा के प्रारम्भिक अंश को उद्धृत किया गया है। यह गाथा चारित्राप्राभृत में इस प्रकार उपलब्ध होती है दसणवयसामाइय पोसह सचित्त रायभत्ते य। बंभारंभपरिग्गह अणुमण उद्दिट्ट देसविरदो य ॥ २२ ॥ श्रा.प्र. के टीकागत निर्देश के अनुसार वह गाथा इसी रूप में हरिभद्र के सामने रही है या कुछ भिन्न रूप में, यह कहा नहीं जा सकता। सम्भव है प्रत्याख्याननियुक्ति में वह गाथा हो और वहाँ से हरिभद सूरि ने उसके उतने अंश को उद्धृत किया हो, अथवा उक्त चारित्रप्राभृत से ही उन्होंने उसे उद्धृत किया हो। ६. श्रा. प्र. से सम्बद्ध पूर्वोत्तरकालवर्ती साहित्य हम अब यहाँ यह विचार करना चाहेंगे कि प्रस्तुत श्रा. प्र. पर अपने पूर्ववर्ती किन-किन ग्रन्थों का प्रभाव रहा है तथा उसका भी प्रभाव पश्चाद्वर्ती किन ग्रन्थों पर रहा है। इसके लिए यहाँ तुलनात्मक दृष्टि से कुछ विचार किया जाता है। (१) श्रावकप्रज्ञप्ति और प्रवचनसार प्रवचनसार आचार्य कुन्दकुन्द (प्रथम शती प्रायः) विरचित आध्यात्मिक ग्रन्थ है। इसके तीसरे चारित्राधिकार में निम्न गाथा उपलब्ध होती है जं अण्णाणी कम्म खवेइ भवसयसहस्सकोडीहिं। तंणाणी तिहिं गुत्तो खवेइ उस्सासमेत्तेण ॥ ३-३८ ॥ यह गाथा श्रा. प्र. (१५६) में इस प्रकार है जं नेरइओ कम्मं खवेइ बहुआहि वासकोडीहिं। . तन्नाणी तिहि गुत्तो खवेइ ऊसासमित्तेण ॥ दोनों गाथाओं का उत्तरार्ध सर्वथा समान है। पर्वार्ध में प्र. सार में जहाँ 'अण्णाणी' है वहाँ श्रा. प्र. में उसके स्थान में 'णेरइओ' है जो प्रसंग के अनुसार परिवर्तित हो सकता है। श्रा. प्र. में वहाँ प्रसंग नारक जीवों का है, अतः 'अण्णाणी' के स्थान में 'णेरइओ' पद उपयुक्त है। हरिभद्र सूरि ने ध्यानशतक की अपनी टीका में इस गाथा को उद्धृत किया है। वहाँ 'अन्नाणी' के स्थान में श्रा. प्र. 'बहुआहि वासकोडीहिं' ही पाठ है, 'नेरइओ' पाठ वहाँ नहीं है (दखिए ध्या. श. गा. ४५ की टीका)। भवसयसहस्सकोडीहिं' है। दोनों ही पाठ काल की अधिकता के सूचक हैं। हो सकता है प्रकृत गाथा अन्यत्र कहीं नियुक्तियों आदि के भी अन्तर्गत हो। (२) श्रावकप्रज्ञप्ति और मूलाचार मूलाचार आचार्य वट्टकेर (१-२ शती) विरचित, मुनि के लिए आचारविषयक, महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। बारह अधिकारों में विभक्त इसके सातवें आवश्यक अधिकार में सामायिक आवश्यक के प्रसंग में निम्न गाथा प्राप्त होती है
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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