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________________ श्रावकप्रज्ञप्तिः [ २४८ - एवं च व्यवस्थिते सति । या अनिवृत्तिः सैव वधो निश्चयतः, प्रमादरूपत्वात् । अथवापि वषहेतुरनिवृत्तितो वधप्रवृत्तेः । विषयोऽपि वस्तुतो गोचरोऽपि सैवानिवृत्तिर्वधस्य । स्फुटं व्यक्तम् । अनुबंधात्प्रवृत्त्यध्यवसायानुपरमलक्षणाद्भवति ज्ञातव्या अस्या एव वधसाधकत्वप्राधान्यख्यापनार्थं हेतुविषयाभिधानमदुष्ट मेवेति ॥ २४७॥ १४६ अमुमेवार्थं समर्थयन्नाह - हिंसाइपायगाओ अप्पेडिविरयस्स अस्थि अणुबंधो । अत्तो' अणिवित्तीओ' कुलाइवेरं व नियमेण ॥ २४८॥ हिंसादिपातकादादिशब्दात् मृषावादादिपरिग्रहः । अप्रतिविरतस्यानिवृत्तस्यास्त्यनुबन्धः ' प्रवृत्त्यध्यवसायानुपरमलक्षणः । उपपत्तिमाह-अत एवानिवृत्तेः प्रवृत्तेः कुलादिवैरवन्नियमेनावश्यंतयेति ॥ २४८॥ दृष्टान्तं व्याचिख्यासुराह जेसि मिहो कुलवेरं अप्पडिविरईउ तेसिमनोन्नं । वह किरियाभावं विन तं सयं चेवे उवसमइ ॥ २४९ ॥ विवेचन -- यहाँ वधकी निवृत्तिको आवश्यक बतलाते हुए सर्वप्रथम उस वधविषयक अनिवृत्ति - उसके प्रत्याख्यान न करने को ही वध कहा गया है। कारण इसका यह है कि जबतक जीव वधकी निवृत्तिको स्वीकार नहीं करता तबतक प्रमाद बना ही रहता है, और जबतक प्रमाद है तबतक तज्जन्य कर्मका बन्ध भी सम्भव है । यही कारण है जो जन्तुपीड़ाके परिहार में सदा सावधान रहनेवाले साधुके गमनागमनादि रूप प्रवृत्ति में प्राणिपीड़ाके सम्भव होनेपर भी उसके अहिंसा महाव्रतमें कोई दोष नहीं लगता । इसीसे उसके प्रमादजनित बन्ध भी नहीं होता है । आगे चलकर वधकी अनिवृत्तिको उस वधका कारण भी कहा गया है। इसका भी कारण यह है कि जबतक उस वधकी निवृत्तिको स्वीकार नहीं किया जाता तबतक उसका परिहार सम्भव नहीं है - तदनुरूप परिस्थितिके निर्मित होनेपर वह वधमें प्रवृत्त हो सकता है। इसके अतिरिक्त चूँकि उसको निवृत्ति के बिना वधविषयक संकल्पका अन्त होता नहीं है, अतएव उस वधविषयक अनिवृत्तिको वधका विषय भी बतलाया गया है। इस प्रकार जब यह वधविषयक अनिवृत्ति स्वयं वधस्वरूप, वधकी कारण ओर उस वधकी विषय भी है तब उस वधकी निवृत्तिको आवश्यक और कल्याण करनेवाली समझना चाहिए || २४७|| आगे इसीका समर्थन करते हैं जो हिंसा व असत्यभाषण आदि पापोंसे विरत नहीं है उसके इस अनिवृत्तिसे कुलादि वैरके समान तद्विषयक अनुबन्ध --- उससे सम्बन्ध रखनेवाली प्रवृत्तिके परिणामसे अविरक्ति - नियमसे बनी ही रहती है || २४८॥ आगे उक्त दृष्टान्तको स्पष्ट किया जाता है जिन मनुष्यों में परस्पर कौटुम्बिक वेर रहता है उनके मध्य में परस्पर वधरूप कार्यके न होनेपर भी वधक्रियासे निवृत्त न होनेके कारण वह बैरभाव स्वयं उपशान्त नहीं होता । १. अ हिंसाएपाएगाउ अप्प । २. अ एत्तो । ३. म अणिवत्तीओ । ४. विरतअत्थिमणुबंधोस्याप्रवृत्त्यव्यवसायां । ५. अ विणियवंस चेव ।
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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