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________________ १४० श्रावकप्रज्ञप्तिः [२३७ - अत्रोत्तरमाह-संभवति वधो येष्वित्युक्तं अथ कोऽयं संभव इति ? किताब तव्वहु च्चिय उयाहु कालंतरेण वहणं तु । किंवावहु त्ति किं वा सत्ती को संभवो एत्थ ॥२३७।। किं तावत्तद्वध एव तेषां व्यापाद्यमानानां वधस्तद्वधः क्रियारूप एव । उताहो कालान्तरेण हननं जिघांसनमेव वा। कि अवधो अव्यापादनमित्यर्थः। किं वा शक्तिः व्यापादकस्य व्यापाद्यविषया। कः संभवोऽत्र प्रक्रम इति । सर्वेऽप्यमी पक्षा दुष्टाः ॥२३७॥ तथा चाह जइ ताव तव्वहु च्चिय अल निवित्तिइ अविसयाए उ । कालंतरवहणंमि वि किं तीए नियमभंगाओ ॥२३८॥ यदि तावत्तद्वध एव तेषां व्यापाद्यमानवधक्रियैव संभव इति । अत्र दोषमाह-अलं निवृत्त्या न किचिद्वधनिवृत्त्याविषययोत हेतुः, निमित्त कारण हेतुषु सर्वासां प्रायो दर्शनम्' इति वचनात् । अविषयत्वं च वक्रियाया एव संभवत्वात्, संभवे च सति निवृत्त्यभ्युपगमात्, ततश्च वधक्रियाउनका जब वध करना ही सम्भव नहीं है तब उसमें शक्तिके निरोधकी कल्पना ही नहीं होतो। उदाहरणार्थ जो प्राणो हाथ और पावसे रहित है वह यदि मछलोके वधसे निवृत्त होकर उस अनिवृत्तिके फलकी अभिलाषा करता है तो जिस प्रकार यह हास्यास्पद है उसी प्रकार वधके विषयभूत नारकादिके वधको निवृत्तिसे फलको प्राप्तिकी सम्भावना करना भी विद्वज्जनोंके लिए हास्यास्पद है। इस प्रकार कितने वादा अपने पूर्व पक्षको स्थापित करते हैं ।।२३५-२३६।। आगे इस अभिमतका निराकरण करते हुए प्रथमतः 'सम्भव' शब्दसे वादोको क्या अभिप्रेत है, यह पूछते हैं ___ जिनका वध सम्भव है, यह जो वादोके द्वारा कहा गया है उसमें 'सम्भव' से उसे क्या अभीष्ट है, इसमें चार विकल्प उठाये जाते हैं-क्या वध्य प्राणीका क्रियात्मक वध करना यह 'सम्भव' से अभीष्ट है, अथवा भविष्यमें उसका वध करना यह क्या 'सम्भव'का अर्थ है, अथवा वध न करना यह 'सम्भव' से अभिप्रेत है, अथवा वध्य प्राणीके वधविषयक शक्ति उस 'सम्भव' से इष्ट है, इस प्रकार वादीको 'सम्भव'से इन विकल्पोंमें कौन-सा विकल्प अभीष्ट है, यह प्रश्न यहां पूछा गया है ॥२३७।। अब इन विकल्पोंको दूषित ठहराते हुए उनमें से प्रथम दो विकल्पोंमें दोष दिखलाते हैं यदि वादीको वध्य प्राणीका वध हो 'सम्भव'से अभीष्ट है तो विषयसे रहित उस निवृत्तिसे बस हो-वह तब निरर्थक सिद्ध होती है। कालान्तरमें वधरूप दूसरे विकल्पमें भा उस निवृत्तिसे क्या प्रयोजन सिद्ध होनेवाला है ? तब भी वह निरर्थक रहनेवाला है, क्योंकि वैसी परिस्थितिमें नियम भंग होनेवाला है। विवेचन-उपर्युक्त चार विकलोंमें वध्य प्राणीको वधक्रियारूप प्रथम विकल्प तो नहीं बनता, क्योंकि वधक्रियाको सम्भव स्वीकार करनेपर उस वधको निवृत्ति का विषय ही कुछ नहीं रहता, अतः वह निरर्थक सिद्ध होतो है । अभिप्राय यह है कि जिस वधको निवृत्ति करायी जातो है वह वध तो पूर्व में ही किया जा चुका, तब वैसो अवस्थामें उस वधकी निवृत्तिका प्रयोजन ही १. अ तन्वहो। २. अ उदाहु । ३. अ वहं तुः। ४. अ जिघांसनमेवा अवधो । ५. अ णिवत्तीए ।
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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