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________________ १३६ श्रावकप्रज्ञप्तिः [२२७ तृतीयं हिंसाभेदमाह मिगवहपरिणामगओ आयण्णं कड्ढिऊणे कोदंडं । मुत्तणमिसुं उभओ वहिज्ज तं पागडो एस ॥२२७॥ मृगवधपरिणामपरिणतः सन्नाकर्णमाकृष्य । कोदण्डं धनुर्मुक्त्वेषु बाणम् । उभयतो वधेत् हन्यात् द्रव्यतो भावतश्च । तं मृगम् । प्रकट एष हिंसक इति ॥२२॥ चतुर्थ भेदमाह उभयाभावे हिंसा धणिमित्तं भंगयाणुपुवीए । तहवि य दंसिज्जंती सीसमइविगोवणमट्ठा ।।२२८।। उभयाभावे द्रव्यतो भावतश्च वधाभावे। हिंसा ध्वनिमात्रम्, न विषयतः भगकानुपूायाता। तथापि च दर्यमाना शिष्यमतिविकोपनं विनेयबुद्धिविकाशायादुष्टैवेति ॥२२८॥ इय परिणामा बंधे बालो वुड्ढुत्ति थोवमियमित्थ । बाले वि सो न तिव्वो कयाइ बुड्ढे वि तिव्युत्ति ।।२२९॥ आगे तीसरे प्रकारको हिंसाको दिखलाते हैं कोई मनुष्य मृगघातके विचारमें मग्न होकर कान पर्यन्त धनुषको खींचता हुआ उसके ऊपर बाणको छोड़ता है। इस प्रकार वह प्रकटमें दोनों रूपमें-द्रव्यसे व भावसे भी उस मुगका वध करता है। विवेचन-एक व्याध मृगके घातके विचारसे धनुषकी डोरीको खोंचकर उसके ऊपर बाणको छोड़ देता है, जिससे विद्ध होकर वह मरणको प्राप्त हो जाता है। यहाँ व्याधने मृगके वधका जो प्रथम विचार किया, यह तो भावहिंसा हुई, साथ ही उसने बाणको छोड़कर उसका जो वध कर डाला, यह द्रव्याहिंसा हुई। इस प्रकारसे वह व्याध द्रव्य और भाव दोनों प्रकारसे हिंसक होता है ।।२२७॥ अब उक्त हिंसाके चौथे भेदको दिखलाते हैं द्रव्य और भाव दोनों प्रकारसे वधके न होने पर भंगकानुपूर्वीसे-उस प्रकारके वाक्यके उच्चारण मात्रसे-ध्वनि ( शब्द ) मात्र हिंसा होती है। यह वस्तुत: हिंसा नहीं है, फिर भी शिष्यकी बुद्धि के विकासके लिए वह केवल दिखलाई जाती है, अतएव वह दोषसे रहित है। विवेचन-अभिप्राय यह है कि कभी-कभी गुरु शिष्य की बुद्धिको विकसित करनेके लिएउसे सुयोग्य विद्वान् बनाने के विचारसे-केवल शब्दों द्वारा मारने-ताड़ने आदिके विचारको प्रकट करता है, पर अन्तरंगमें वह दयालु रहकर उसके हितको ही चाहता है। इस प्रकार द्रव्य व भाव दोनों प्रकारसे हिंसाके न होनेपर भी वैसे शब्दोंके उच्चारण मात्रसे हिंसा होती है जो यथार्थमें हिंसा नहीं है, क्योंकि इस प्रकारके आचरण में न तो मारण-ताड़न किया जाता है और न गुरुका वैसा अभिप्राय भी रहता है ॥२२८॥ ___ आगे हिंसाको तर-तमताको कारण बाल व वृद्ध आदि अवस्था नहीं है, यह अभिप्राय प्रकट किया जाता है१. अ मिगविहपरिणामो गओ यायन्नं कट्ठिऊण । २. अ परिणामगतः । ३. ज विगो। णुमदुद्दा । ४. अ कयाति बुड्ढे ।
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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