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________________ श्रावकप्रज्ञप्तिः [२३ - एतदपि न युक्तिक्षमं यद्यस्मात्परिणामात्पापमिहोक्तम् । स च न नियतो बाल- बुद्धादिषु क्लिष्टेतररूपः । द्रव्यादिभेदभिन्ना तथा हिंसा वर्णिता समये । यथोक्तम्- -वव्व णामेगे हिंसा ण भावउ इत्यादि ॥ २२२ ॥ १३४ प्रथम हिंसा भेदमाह उच्चा लियंमि पाए इरियासमियरस संकमट्ठाए । वावज्जिज्ज कुलिंगी मरिज्ज तं जोगमासज्ज ॥२२३॥ उच्चालित उत्क्षिप्ते पादे संक्रमार्थ गमनार्थमिति योगः । ईर्यासमितस्योपयुक्तस्य साधोः । किम् ? व्यापद्येत महतीं वेदनां प्राप्नुयात् स्रियेत प्राणत्यागं कुर्यात् । कुलिङ्गी कुत्सित लिङ्गवान् द्वन्द्रियादिसत्त्वः । तं योगमासाद्य तथोपयुक्तसाधुब्यापारं प्राप्येति ॥२२३॥ न य तस्स तन्निमित्तो बंधो सुमो वि देसिओ समए । जम्हा सो अपमत्तो स उ पमाउ ति निद्दिट्ठा || २२४॥ विवेचन - यहाँ उक्त अभिमतका निराकरण करते हुए कहा गया है कि बालक आदिके अधिक और वृद्ध आदिके वध में अल्प पाप होता है, यह जो वादीका अभिमत है वह युक्तिको सहन नहीं करता - युक्तिसे विचार करनेपर वह विघटित हो जाता है । इसका कारण यह है कि पापका जनक संक्लेश है, वह बाल व कुमार आदिके वधमें अधिक है । और वृद्ध व युवा आदि के वध में अल्प हो, ऐसा नियम नहीं है- कदाचित् बालके वध में अधिक और कुमारके वधमें कम भी संक्लेश हो सकता है । कभी परिस्थिति के अनुसार इसके विपरीत भी वह हो सकता है । इसके अतिरिक्त आगम में द्रव्य व क्षेत्र आदिके अनुसार हिंसा भी अनेक प्रकारकी निर्दिष्ट की गयी है । यथा- कोई हिंसा केवल द्रव्यसे होती है, भावसे वह नहीं होती। कोई हिंसा भावसे ही होती है, द्रव्यसे नहीं होती । जो हिंसा भावके बिना केवल द्रव्यसे होती है वह संक्लेश परिणामसे रहित होने के कारण पापकी जनक नहीं होती । जैसे – ईर्यासमिति से गमन करते हुए साधुके पाँवों के नीचे आ जानेसे चींटी आदि क्षुद्र जन्तुका विघात । इसके विपरीत जो किसीको शत्रु मानकर उसके वधका विचार तो करता है, पर उसका घात नहीं कर पाता । इसमें घातरूप द्रव्य हिंसा न होनेपर भी संक्लेश परिणामरूप भावहिसा के सद्भावमें उसके पापका संचय अवश्य होता है ||२२२॥ अब आगमोक्त उन हिंसा के भेदों में प्रथम भेदभूत हिंसाका स्वरूप दिखलाते हैंगमन में पाँव के उठानेपर उसके सम्बन्धको पाकर सकती है व कदाचित् वे मरणको भो प्राप्त हो समिति के परिपालन में उद्यत साधुके क्षुद्र द्वन्द्रिय आदि किन्हीं प्राणियोंको पीड़ा हो सकते हैं ||२२३|| फिर भी वह हिंसाका भागी नहीं होता, यह आगे स्पष्ट किया जाता है परन्तु उसके निमित्तसे ईर्यासमिति में उद्युक्त उस साधुके आगममें सूक्ष्म भी कर्मका बन्ध नहीं कहा गया है । इस का कारण यह है कि वह प्रमादसे रहित है - प्राणिरक्षण में सावधान होकर ही गमन कर रहा है । और प्रमाद को ही हिंसाका निर्देश किया गया है || २२४ ॥ १. अदव्त्रगुणमेगा । २. अ तो सोय मनाउ ति णिद्दिट्ठो ।
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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