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________________ वधासम्भवत्ववादिनामभिमतनिरासः निच्चाणिच्चो संसार - लोगववहारओ मुणेयव्वो । न य एगसहावंमी संसाराई' घडंति त्ति ॥ १८९ ॥ नित्यानित्यो जीव इति गम्यते । कुतः ? संसाराल्लोकव्यवहारतो मुणितव्यः -त एव सवा नरकं व्रजन्तीत्यादि संसारात्, गत आगत इति लोकव्यवहाराच्च विज्ञेय इति । विपक्षव्यवच्छेदार्थमाह-न चैकस्वभावे न च नित्याद्येकधमण्येवात्मनि संसारादयो घटन्त इति गाथासमुदायार्थः ॥ १८१ ॥ - १८३ ] अधुना अवयवार्थमाह ११३ निच्चस्स सहावंतरमपावमाणस्स कह णु संसारो । जंमाणंतरनट्ठस्स चैव एगंतओ मूलो ॥ १८२ ॥ नित्यस्याप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकस्वभावेन हेतुना, स्वभावान्तरमप्राप्नुवतः सदैवैकरूपत्वात्, कथं नु संसारो नैव विचित्रत्वात्तस्य । जेन्मानन्तरनष्टस्यैव च सर्वथोत्पस्यनन्तरापवगिणः । एकान्ततोलः तस्यैव तथापरिणामवैकल्यत एकान्तेनैवाकारणः कुतः संसार इति ॥ १८२ ॥ तोचि ववहारो गमणागमणाइ लोगसंसिद्धो । न घडइ जं परिणामी तम्हा सो होइ नायव्वो ॥ १८३ ॥ अत एवानन्तरोदितादेकान्त नित्यत्वादेर्हे तो व्यवहारो गमनागमनादिनं घटते, एकत्रैक संसार और लोकव्यवहारके कारण जीवको कथंचित् नित्य-अनित्य जानना चाहिए । कारण यह कि उसके नित्य व अनित्य आदि एक स्वभाववाला होनेपर वे संसार आदि घटित नहीं होते हैं । विवेचन - संसरण अर्थात् जन्म-मरणको प्राप्त होते हुए चतुर्गतिमें परिभ्रमण करनेका नाम संसार है । यह संसार जीवके एक रूप में अवस्थित होनेपर घटित नहीं होता है । वह जब अपने स्वाभाविक शान्त स्वरूपको छोड़कर राग-द्वेष के वशीभूत होता है तब यथासम्भव नरकादि गतिको प्राप्त होकर सुख-दुख को भोगता है । इस प्रकार अपने चैतन्य स्वभावको न छोड़ता हुआ ही उन गतियों में परिभ्रमण करता है । तथा जो वहां गया था वह आ गया है, इत्यादि प्रकारका लोकव्यवहार भी नित्यता व अनित्यताके एकान्त पक्ष में सम्भव नहीं है । इस प्रकारके संसार व लोकव्यवहारको देखते हुए जीवकी अपेक्षाकृत नित्यता व अनित्यता दोनों सिद्ध होते हैं || १८१ ॥ आगे जीवको एक स्वभाव माननेपर वह संसार घटित नहीं होता है, यह प्रकट करते हैंजो नित्य होता है वह दूसरे स्वभावको प्राप्त नहीं होता है, कारण यह कि उत्पत्ति व विनाशसे रहित वह सदा एकरूप ही रहता है। ऐसी परिस्थितिमें उसके वह संसार कैसे सम्भव हो सकता है ? असम्भव होगा वह । इसके विपरीत अनित्य पक्षमें जन्मके अनन्तर ही विनष्ट होनेवाले उस जीवके संसारका मूल कारण ही नहीं सम्भव होगा । अभिप्राय यह है कि जीवके क्षणभंगुर मानने पर जो हिंसादि पापको करता है वह तो अनन्तर पूर्वं तब उस परिस्थिति में जब उसके फलको वह भोग ही नहीं सकता है सम्भावना कैसे की जा सकती है ? पाप या पुण्यका आचरण एक करे भोगे, यह हास्यास्पद ही होगा ॥ १८२ ॥ क्षण में विनष्ट हो चुका । तब उसके भी संसारकी और फल उसका दूसरा १. भ संसाराती । २. अ जन्मान्तर । १५
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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