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________________ १०४ श्रावकप्रज्ञप्तिः . [१६२ - अथैवं मन्यसे-तथाभावमपि सम्मोहभावमपि प्रतनुबन्धेन कर्मक्षयहेतुं करोति । नन्नेव व्यापादयन्नेव,नान्यथा। येन कारणेन। तत्तस्मात्कर्तव्य एव तको वध इत्याशङ्कयाह-नो नैतदेवं । तत्प्रतिपक्षबन्धाद्वधप्रतिपक्षोऽवधस्तस्माद्बन्धादन्यथावधात्तत्क्षयानुपपत्तिरविरोधादिति ॥१६॥ एवं च मुत्तबंधादओ इहं पुव्ववन्निया दोसा । अणिवारणिज्जपसरा अब्भुवगमबाहगा नियमा ॥१६२॥ एवं चावधाद्बन्धापत्तौ । मुक्तबन्धादय इह पूर्ववणिता दोषा अनिवारितप्रसरा अभ्युपगमबाधका वधात्कर्मक्षय इत्यङ्गोकृतविरोधिनो नियमेन अवश्यतयेति ॥१६२॥ उपसंहरन्नाह इय एवं पुव्वावरलोगविरोहाइदोससयकलियं । मुद्धजणविम्हयकर मिच्छत्तमलं पसंगेणं ॥१६३॥ इय एवमेतत्पूर्वापरलोकविरोधादिदोषशतकलितं मुग्धजनविस्मयकरं संसारमोचकमतं मिथ्यात्वम् अलं पर्याप्तं प्रसङ्गेनेति ॥१६३।। विवेचन—यहां वादी शंका करता है कि जब दुखी जीवोंका वध किया जाता है तब वे मूर्छाको प्राप्त हो जाते हैं। इस मूर्छाकी अवस्था में उनके अल्प बन्धके संक्लेशके अभावमें साथ कर्मका क्षय होता है। इस कारण उनका वध करना श्रेयस्कर है, क्योंकि वधके बिना उनके कर्मक्षयका अन्य कोई कारण सम्भव नहीं है। वादीकी इस शंकाके समाधानमें यहां यह कहा गया है कि वैसा सम्भव नहीं है। इसका कारण यह है कि कर्मका बन्ध और क्षय ये दो कार्य परस्पर विरुद्ध है, अतः इनके कारण भी परस्पर भिन्न होने चाहिए। ऐसी परिस्थिति में वादो यदि वधसे कमका क्षय मानता है तो कर्मबन्धका कारण उसका प्रतिपक्षो अवध-वधका न करना-ठहरता है। यह वादीके लिए अनिष्टका प्रसंग है। इसे टालने के लिए यदि वादी अवधको कर्मबन्धका कारण नहीं मानना चाहता है तो फिर वह वध कर्मक्षयका भी कारण नहीं हो सकता है, क्योंकि विरोधी ही विवक्षित वस्तुके विनाशका कारण होता है। तदनुसार वध कुछ कर्मका विरोधी नहीं है ।।१६१॥ ___ उपर्युक्त अवधसे कर्मबन्धके प्रसंगमें और क्या अनर्थ हो सकता है, इसे भी आगे स्पष्ट किया जाता है इस प्रकार-अवधसे कर्मबन्धका प्रसंग प्राप्त होनेपर-मुक्त जीवोंके भी कर्मबन्धका प्रसंग अनिवार्य होगा, इत्यादि जिन दोषोंका वर्णन पूर्व में किया जा चुका है उनके प्रसारको नहीं रोका जा सकेगा। ये सब दोष 'वधसे कर्मका क्षय होता है,' इस वादीको मान्यतामें नियमसे बाधक हैं ॥१६२॥ अब आगे इस प्रकरणका उपसंहार करते हैं इस प्रकारसे पूर्वापर विरोध और लोक विरोध आदि सैकड़ों दोषोंसे युक्त यह मिथ्यात्वसंसारमोचकोंका मिय्यामत केवल मूढ़ जनों के लिए आश्चर्यचकित करनेवाला है-वास्तवमें वह असंगत व अहितकर होनेसे आत्महितैषियोंके लिए अग्राह्य है ।।१६३।। १. अप्रतिपक्षबंधो सत्तस्मादबंधा । २. अ बंबादहो अहे घुम्वन्निया । ३. अतोऽग्रे टोकागत "विस्मयकर' पदपर्यन्तः पाठः स्खलितोऽस्ति । ४. अ 'प्रसङ्गेनेति' नास्ति ।
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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