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________________ ७६ श्रावकप्रज्ञप्तिः [ १०६ - सांप्रतं द्वादशप्रकारं श्रावकधर्ममुपन्यस्यता यदुक्तं पञ्चाणुव्रतादीनीति तान्यभिधित्सुराह - पंच उ अणुव्वयाई थूलगपाणिवहविरमणाईणि । तत्थ पढमं इमं खलु पन्नत्तं वीयरागेहिं ॥ १०६ ॥ पञ्च त्वणुव्रतानि -तुरेवकारार्थः । पञ्चैव । अणुत्वमेषां सर्वविरतिलक्षणमहाव्रतापेक्षया । तथा चाह-स्थरप्राणवधविरमणादीनि स्थूरक प्राणिप्राणवधविरमणमादिशब्दात्स्थूरमृषावादादिपरिग्रहः । तत्र तेष्वणुव्रतेषु । प्रथममाद्यमिदं खल्विति इदमेव वक्ष्यमाणलक्षणं, शेषाणामस्यैव वस्तुत उत्तरगुणत्वात् । प्रज्ञप्तं वीतरागैः प्ररूपितमर्हद्भिरिति ॥१०६ ॥ थूलपाणि[C] वहस्स [स्स ] विरई, दुविहो अ सो वहो होइ । संकप्पारं भेहि य, वज्जइ संकप्पओ विहिणा || १०७॥ प्राणविरतिः स्थूरा एव स्थूरका द्वोन्द्रियादयस्तेषां प्राणाः शरीरेन्द्रियोच्छ्वा सायुर्बललक्षणास्तेषां वधः जिघांसनं तस्य विरतिनिवृत्तिरित्यर्थः । द्विविधश्चासौ वधो भवति । कथम् ? संकल्पारम्भाभ्याम् । तत्र व्यापादनाभिसंधिः संकल्पः कृष्यादिकस्त्वारम्भः । तत्र वर्जं अब बारह प्रकारके श्रावक धर्मके निरूपणका उपक्रम करते हुए पूर्व में (६) जिन अणुव्रतादिका निर्देश किया गया था उनमें प्रथमतः पांच अणुव्रतोंको प्रकट किया जाता है स्थूल प्राणिवधविरमणको आदि लेकर अणुव्रत पांच ही हैं। उनमें वीतराग जिनके द्वारा प्रथम अणुव्रत इसे कहा गया है जिसका कि स्वरूप आगेकी गाथा में निर्दिष्ट किया जा रहा है । विवेचन -- स्थूल प्राणिवधविरमण, स्थूल मृषावादविरति, स्थूल अदत्तादानविरति, परदारपरित्याग व स्वदारसन्तोष तथा पांचवां इच्छापरिमाण इस प्रकार ये वे पांच अणुव्रत हैं । इन व्रतों में जो 'अणु' यह विशेषण दिया गया है वह सर्वविरतिरूप महाव्रतोंकी अपेक्षासे दिया गया है । उसका अभिप्राय यह है कि महाव्रतोंमे जिस प्रकारसे प्राणिवधादिरूप पांच पापोंका परित्याग सर्वथा - मन, वचन, काय व कृत, कारित, अनुमोदनासे - किया जाता है उस प्रकार - प्रकृत अणुव्रतोंमें उनका सर्वथा परित्याग नहीं किया जाता, किन्तु देशतः ही उनका त्याग किया जाता है । कारण यह कि आरम्भादि गृहकार्यों को करते हुए गृहस्थके उनका पूर्ण रूपसे त्याग करना शक्य नहीं है, वह तो स्थूल रूपमें ही उनका परित्याग कर सकता है ॥ १०६ ॥ जैसा कि पूर्व गाथामें संकेत किया गया है, अब आगेको गाथा द्वारा उस प्रथम अणुव्रतका स्वरूप कहा जाता है स्थूल प्राणियों के वध से विरत होनेका नाम स्थूलप्राणिवधविरति अणुव्रत है । वह वध संकल्प और आरम्भके भेदसे दो प्रकारका है । उसमें प्रकृत प्रथम अणुव्रतका धारक श्रावक आगमोक्त विधिके अनुसार संकल्पसे ही उस वधका परित्याग करता है । विवेचन-स्थूल नामकर्मके उदयसे जिनका शरीर स्थूल ( प्रतिघात सहित ) होता है उन्हें स्थूल और सूक्ष्म नामकर्मके उदयसे जिनका शरीर सूक्ष्म ( प्रतिघात रहित ) होता है उन्हें सूक्ष्म कहा जाता है । प्रकृतमें स्थूल प्राणियोंसे अभिप्राय द्वीन्द्रियादि जीवोंका है। उनके शरीर, इन्द्रिय, उच्छ्वास, आयु और बल प्राणोंके विघातका परित्याग करना, इसे स्थूल प्राणवधविरति कहते हैं । यह उन पांच अणुव्रतों में प्रथम है। प्रथम अणुव्रती श्रावक उस वधका परित्याग संकल्पसे ही १. अ 'स्थूरप्राणवध' इत्यतोऽग्रेऽग्रिम' प्राणवधू' पर्यन्तः पाठः स्खलितोऽस्ति । २. अ प्राणिवेध्यस्य ।
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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