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________________ ७४ श्रावकप्रज्ञप्तिः [१०२ क्वचिज्जीवो बली स्ववीयतः क्लिष्टकर्माभिभवेन सम्यग्दर्शनाद्यवाप्त्या अनन्तानां सिद्धत्वश्रवणात् । क्वचित्कर्माणि भवन्ति बलवन्ति यस्मादेवं वीर्यवन्तोऽपि' ततोऽनन्तगुणाः कर्मानुभावतः संसार एव तिष्ठन्ति प्राणिन इति । तथा चाह-यस्मादनन्ताः सिद्धास्तिष्ठन्ति । भवेऽप्यनन्ता इति ॥१०१॥ एतदेव प्रकटयति अच्चंतदारुणाई कम्माइं खवित्तु जीवविरिएणं । सिद्धिमणंता सत्ता पत्ता जिणवयणजणिएणं ॥१०२॥ अत्यन्तदारुणानि क्लिष्टविपाकानि । कर्माणि ज्ञानावरणादीनि । क्षपयित्वा जीववीर्येण प्रलयं नीत्वा शुभात्मपरिणामेन । सिद्धि मुक्तिम् । अनन्ताः सत्त्वाः प्राप्ताः जिनवचनजनितेन जीववीर्येण । इह वैराग्यहेतुः सर्वमेव वचनं जिनवचनमुच्यत इति ॥१०२।। तत्तो गंतगुणा खल कम्मेण विणिज्जिआ इह अडति । सारीरमाणसाणं दुक्खाणं पारमलहंता ॥१०३॥ ततः सिद्धिमुपगतेभ्यः सकाशादनन्तगणा एव कर्मणा विनिर्जिताः सन्त इह संसारेऽटन्ति, यस्मादनादिमतापि कालेनैकस्य निगोदस्यानन्तभागः सिद्धः, असङ्खयेयाश्च निगोदा इति । विवेचन-अभिप्राय यह है कि जीवोंमें बहतसे इतने बलवान होते हैं कि वे बाधक कर्मों को नष्ट करके प्राप्त हुए सम्यग्दर्शनादि गुणोंके प्रभावसे मुक्ति को प्राप्त कर लेते हैं। ऐसे अनन्ते जीव हैं जिनका वृत्तान्त शास्त्रोंमें सुना जाता है। इसके विपरीत अनन्ते जीव ऐसे भी हैं जो अपनेसे बलिष्ठ उन कर्मोंसे अभिभत होकर संसारमें ही परिभ्रमण कर रहे हैं। ऐसे संसारमें परिभ्रमण करनेवाले जीव उन सिद्धिको प्राप्त हुए जीवोंसे अनन्त गुणे हैं ।।१०१।। आगे इसे और भी स्पष्ट करते हुए उसी जीववीर्यको दिखलाते हैं जिन भगवान्के वचनसे-परमागमके प्रसादसे-उत्पन्न जीवके सामर्थ्यसे-अपने निर्मल आत्मपरिणामके आश्रयसे-क्लेशजनक भयानक विपाकसे युक्त कर्मोका क्षय करके अनन्त जीव सिद्धि ( मुक्ति) को प्राप्त हो चुके हैं। यहां वैराग्यके कारणभूत सभी वचनको जिनवचन समझना चाहिए ॥१०२॥ आगे कर्मको भी बलिष्ठताको दिखलाते हैं ऊपर निर्दिष्ट उन मुक्तिप्राप्त जीवोंसे अनन्तगणे ऐसे भी जीव हैं जो कमसे जीते जाकरउसके वशीभूत होकर-शारीरिक और मानसिक दुःखोंके पारको न पाकर यहां संसारमें हो परिभ्रमण कर रहे हैं। विवेचन-यहां कर्मको बलवत्ताको प्रकट करते हुए यह कहा गया है कि जितने जीव अपनी आत्मशक्तिको प्रकट करके उसके आश्रयसे मुक्तिको प्राप्त हो चुके हैं उनसे भी अनन्तगुणे जीव दुनिवार उन ज्ञानावरणादि कर्मोसे अभिभूत होकर चतुर्गतिस्वरूप संसार में परिभ्रमण करते हुए ज्वर व कोढ़ आदि रोग जनित अपरिमित शारीरिक कष्टोंको तथा इष्टवियोग व अनिष्टसंयोग आदि जनित मानसिक कष्टोंको भी सह रहे हैं। आगममें कहा गया है कि एक ही निगोदशरीरमें जितने जीव अवस्थित होते हैं उनके अनन्तवें भाग ही अनादि कालसे अब तक सिद्ध हुए हैं। फिर ऐसे निगोदशरीर तो असंख्यात हैं जिनमें रहनेवाले अनन्तानन्त जीव अनन्त काल में १. अ वोर्यवतोपि । २. अ निगोदस्यानंतर्भावः सिद्धो असं ।
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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