SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 108
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रावकप्रज्ञप्तिः [९३ - परट्टा वणफलाणि' खायंति । पडिणियत्ताणं राया चितेइ लड्डुय-पूयलगमाईणि सव्वाणि खामि । आगया दोवि जणा। रन्ना सूयारा भणिया जं लोए पयरइ तं सव्वं सव्वे रंधेह। तेहिं रंधित्ता उवटवियं रन्नो सो राया पेच्छरायेदिटुंतं करेइ कप्पडियावलिएहि धाडिज्जंति एवं मिट्ठस्स अवगासे होइ ति कणग कुंडगाईणि डेराणि वि खइयाणि । तेहिं सूलेण मओ। अमच्चेण पुण वमण-विरेयणाणि कयाणि सो भोगाणं आभागी जाओ ति। विचिकित्सायां विद्यासाधकसावगो नंदीसरवरगमणं दिव्वगंधाणं देवसंसग्गेण मित्तस्स पुच्छणं विज्जाए पदाणं साहणं मसाणे चउपायगसिक्कयं हेढा इंगालखायरोयस्तलो अट्ठसयवारा परिजवित्ता पादो सिक्कगस्स च्छिज्जइ। एवं बोओ तइओ य च्छिज्जइ । चउत्थे छिन्ने आगासेण वच्चइ। तेण सा विज्जा गहिया । कालच उद्दसिरति साहेइ मसाणे। चोरो य णयरारक्खिएहिं पारद्धो (पेल्लिओ) परिभममाणो तत्थेव अइगओ। ताहे वेढेउं मसाणं ठिया पभाए घिप्पिही । द्वारा अपहृत होकर जंगलके भीतर प्रविष्ट हुए । वहां दोनों भूखसे व्याकुल होकर वनके फलोंको खाते हैं। वापस आते समय राजा सोचता है कि लड्डू और पूयलग आदि सब खाऊँगा । दोनोंके घर आ जानेपर राजाने रसोइयोंको बुलाकर कहा कि जो-जो लोकमें उत्तम भोज्य पदार्थ प्रचलित हैं उन सबको रांधो । आज्ञानुसार उन रसोइयोंने सब राँधकर राजाके सामने उपस्थित कर दिया। तब राजा कांक्षाके वश होकर..................(?) इस प्रकारसे मीठेके लिए अवकाश प्राप्त होगा, ऐसा विचार करते हुए कणग व कुंडग आदि तथा उंडेरों (?) को भी खा डाला। उनसे उत्पन्न हुई शूलको वेदनासे व्यथित होकर वह मर गया। परन्तु अमात्यने कांक्षासे रहित होकर वमन व विरेचन करते हुए उन दूषित फलों आदिको उदरसे बाहर निकाल दिया। इससे वह जीवित रहकर भोगोंका भोक्ता हुआ। इस उदाहरणमें उक्त प्रकारसे कांक्षा और अनाकांक्षाके फलको प्रगट किया गया है। ___ तीसरे अतिचारमें विचिकित्सा और विद्वज्जुगुप्साके रूपमें दो विकल्प हैं। यहां दोनोंके ही पृथक्-पृथक् उदाहरण दिये गये हैं। उनमें प्रथम उदाहरणभूत विद्यासाधक श्रावकका कथानक इस प्रकार है-एक श्रावक नन्दीश्वर द्वीपको गया था। उसके शरीरका दिव्य गन्ध हो गया। इस दिव्य गन्धको देखकर उसके एक मित्र श्रावकने उससे पूछा। उत्तरमें उसने यथार्थ स्थिति कहकर उसे वह विद्या दे दो व उसके साधनेको विधिको समझाते हुए कहा कि इसे श्मशानमें जाकर सिद्ध करना पड़ता है । इसके लिए वहाँ चार पादोंका सींका बांधकर व उसके नीचे खदिर वृक्षको लकड़ीकी अग्नि और शूल आदि अस्त्रोंको रखकर उस सीकेपर चढ़ जाना चाहिए। पश्चात् उसके ऊपर स्थित रहकर एक सौ आठ बार मन्त्रको जपते हुए उसके एक-एक पादको काटना चाहिए। इस क्रमसे पहले, दूसरे और तीसरे पादके कट जानेपर जब चौथा पाद काटा जायेगा तब आकाशसे गमन होता है-आकाशगामिनी विद्या सिद्ध हो जाती है। इस प्रकार कहनेपर मित्र श्रावकने विद्याको ग्रहण कर लिया। फिर वह उसे सिद्ध करनेके लिए कृष्णचतुर्दशीके दिन श्मशान में जाकर निर्दिष्ट विधिके अनुसार उसके सिद्ध करने में प्रवृत्त हुआ। इस १. मु वणफलादिणि । २. अतं सव्वे सव्वं । ३. अ उववियं वि ए रन्नो। ४. अ राया पेत्थ (च्छ) णयदिदंतं करेइ कप्पडियावलेहि। ५. अ विरेयणाणि सो। ६. गंधाणं संथमेणं । ७. अ साहणं समाहेण चउ । ८. अ (पल्लिओ)' नास्ति ।
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy