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________________ - ९० ] सम्यक्त्वातिचारप्ररूपणा अधुना शंकादीनामतिचारतामाह inte मालिनं जायt चित्तस्स पच्चओ अ जिणे सम्मत्ताणुचिओ खलु इइ अइआरों भवे संका ||८९ ॥ ६३ शङ्कायामुक्तलक्षणायां सत्याम् ? मालिन्यं जायतेऽवबोधश्रद्धाप्रकाशमङ्गीकृत्य ध्यामलत्वं जायते । कस्य ? चित्तस्य । अन्तःकरणस्याप्रत्ययश्च अविश्वासश्च । क्व ? जिनेऽर्हति । जायत इति वर्तते । न ह्याप्ततया प्रतिपन्नवचने संशयसमुद्भवः । सम्यक्त्वानुचितः खलु अयं च भगवत्यप्रत्ययः सम्यक्त्वानुचित एव न हि सम्यक्त्वमालिन्यं तदभावमन्तरेणैव भवति । इत्येवमनेन प्रकारेण । अतिचारो भवति शङ्का, सम्यक्त्वस्येति प्रक्रमाद्गम्यते । अतिचारश्चेह परिणामविशेषान्नयमतभेदेन वा सत्येतस्मिन् तस्य स्खलनमात्रं तदभावो वा ग्राह्यः । तथा चान्यैरप्युक्तम् एकस्मिन्नर्थे संदिग्धे प्रत्ययोऽर्हति हि नष्टः । मिथ्या च दर्शनं तत्स चादिहेतुर्भवगतीनाम् ॥ इति ॥ ८९ ॥ प्रतिपादितं शङ्काया अतिचार त्वम् । अधुना दोषमाह - नाes इमीइ नियमा तत्ताभिनिवेस मो सुकिरिया य । तत्तो अ बंधदोसो तम्हा एयं विवज्जिज्जा ॥ ९० ॥ आगे शंकाको अतिचार क्यों माना गया, इसे स्पष्ट किया जाता है शंकासे चित्तको मलिनता होती है तथा सर्वज्ञ जिनके विषय में अविश्वास भी उत्पन्न होता है | यह सम्यक्त्व के लिए अनुचित हो है । इसी कारण वह शंका सम्यग्दर्शनका अतिचार है । विवेचन - आप्त ( विश्वस्त ) स्वरूपसे जिस वचनको स्वीकार किया गया है उसके विषय में कभी अविश्वास नहीं उत्पन्न होता, और यदि वह उत्पन्न होता है तो विश्वास चला जाता है । इस प्रकार जिनवाणीविषयक सन्देह जिनदेवके विषयमें अविश्वासका सूचक है । वह तत्त्वार्थश्रद्धानरूप उस सम्यक्त्वका विराधक है। इससे चित्त भी मलिन होता है-उसका ज्ञान व श्रद्धारूप प्रकाश धूमिल होता है । कारण यह कि वीतराग सर्वज्ञ जिनके विषय में जबतक अविश्वास उत्पन्न न हो तबतक सम्यक्त्व मलिन हो नहीं सकता। इस कारण सम्यवत्वकी विराधक या उसे मलिन करनेवाली होनेसे शंकाको उस सम्यक्त्वका अतिचार कहा गया है । सम्यक्त्वके होते हुए परिणाम विशेषसे अथवा नयविषयक मतभेदके कारण उससे स्खलित होना अथवा उसका अभाव होना, इसे अतिचार समझना चाहिए । अन्योंके द्वारा भी यह कहा गया है कि यदि एक भी अर्थ विषय में सन्देह उत्पन्न होता है तो अरहन्तके विषय में विश्वास नष्ट हो जाता है और दर्शन मिथ्या हो जाता है । अरहन्त विषयक वह अविश्वास चतुर्गतिस्वरूप संसार में भ्रमण करनेका प्रमुख हेतु होता है ॥ ८९ ॥ आगे उस शंकाको दोषरूप भी दिखलाते हैं इस शंका के रहनेपर नियमतः तत्त्वविषयक अभिनिवेश – सम्यक्त्वपरिणाम — और उत्तम क्रिया (- सदाचरण ) भी नष्ट होती है। इस कारण उससे बन्धका दोष - कर्मबन्धका अपराधहोता है, इसलिए उसे छोड़ना चाहिए । १. भ संपाकमालिन्नं जायए । २. अ खलु इति इय आरो । ३. तत्ताहिणिवेस ।
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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