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________________ ४३॥ - शीलांगादि रथसंग्रह ॥ ३ ॥ Doom van arvo on ane arono पिंडथ्थज्झाणं चिय, पदथ्थ रुवथ्थज्झाण मल्लीणो॥ रुवातीतं च पुणो, कम्मखयं कुणइ तं झाणं ॥२॥ पिंमस्थध्यान मेव, पदस्थं ध्यानं रूपस्थध्यान मालीनः॥ रूपातीतं च पुनः, कर्मदयं करोति ध्यानं ॥२॥ पिमस्थध्यान, पदस्थध्यान, रुपस्थध्यान, रुपातित ध्यानमां लीन थएलो जीव कर्मक्षय करेले.॥२॥ दप्प पमायाणा भोग, आसुरे आवईसु अ संकिए ॥ सहसागारो भए, पओसे अवीमंसो ॥३॥ दर्प प्रमादाऽना नोगा, सुरे आरतिषु च ॥ संकितं सदसाकारो, जयं पदोषश्च विमर्शः ॥ ३॥ दर्प, प्रमाद, अनालोग, श्रासुर, वारंवार आवर्तन, शंकावालु, सहसाकार, नय, प्रदोष श्रने विमर्ष ॥३॥ १ मा पच्चरकाणरथनी चित्रनो गाथाना बुटा शब्दोना अर्थ. आगम-सिद्धांत | झाण-ध्यान । रुवातीय-रुपातीत विउ-जाणनार मुए-सुत्रोने सामाइय-सामायिक SONOMIRMEGreenerBARDS A w नाण-ज्ञान arendra वि-पण पिंडथ्य-पिंडस्थ रुखथ्य-रूपस्थ बिय-व्रत
SR No.022024
Book TitleShilangadi Rath Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages78
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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