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________________ काशा शीलांगादि रथसंग्रह. ॥ ५ ॥ ऊर्ध्वदिशि पुरुषजीवः क्रोधी श्रोत्रेन्षियस्य सुखहेतुम् ॥ यो दन्ति पृथ्वी जीवान् , स संसारं परि--नाम्यति ॥१॥ जे क्रोधी पुरुष जीव उर्ध्व दिशामा इन्जियोना सुखने माटे पृथिवी विगेरेना जीवोने हणे ठे ते संसारमा परिब्रमण करे . ॥१॥ ___ संसारं भवअडवी, कम्म समग्गं दीहठिइ तिवबहुपएसो॥ दुहदंदोलिंजीवो, सुगई भावारि सिद्धि सुहं ॥२॥ संसारं नवाटवीं, कटमषवर्ग दीर्घ स्थिति तीवं (रसं) बहु प्रदेशः॥ दुःखमालिंजीव:, सुगति नावारि सिदिसुखं ॥२॥ संसार, नवाटवी, पापनो वर्ग, दीर्घ (लांबी) स्थिति, तिबरस ने बहुस्थान ब्रमण, दुःखनो समूह, सुगति, नावशत्रुथी निस्तार अने मोक्षसुख आटला पदार्थोमांथी पूर्वोक्त जीव आगळना| सात (पदार्थ) ने मेळवे बे अने पाउळना त्रण (पदार्थ) ने मेळवतो नथी. ॥२॥ .. १० मा धर्मरथना चित्रमा आवेली गाथाओना अघरा शब्दोना अर्थ. उड्ढ-उर्व, उंची नारि-नारी | दाणं-दान , | तब-तपने दिसि-दिशामां, जीवो-जीव वियरइ-आपछे अणुतप्पइ-तपेछे अहो-नीची, अधो. पुरिस-पुरुष सीलं-शीयळवत भावणं-भावनाने तिरिय-त्रिछि | कीव-नपुंसक पालइ-पाळेछे भावइ-भावेछ । DirenGranGODOGGEORom लव
SR No.022024
Book TitleShilangadi Rath Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages78
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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