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________________ ९।४६] नवाँ अध्याय प्रथम सम्यक्त्व आदिका लाभ होनेपर अध्यवसायकी विशुद्धिके प्रकर्षसे दसों स्थान क्रमशः असंख्येयगुण निर्जरागले हैं। जैसे मद्यपायीके शराबका कुछ नशा उतरनेपर अव्यक्त ज्ञानशक्ति प्रकट होती है, या दीर्घनिद्राके हटनेपर जैसे ऊँघते-ऊँघते भी अल्प स्मृति होती है, या विषमूञ्छित व्यक्तिको विषका वेग कम होनेपर चेतना आती है अथवा पित्तादिविकारसे मूञ्छित व्यक्तिको मूर्छा हटनेपर अव्यक्त चेतना आती है उसी तरह अनन्तकाय आदि एकेन्द्रियोंमें बार-बार जन्म-मरण-परिभ्रमण करके द्वीन्द्रिय आदि पंचेन्द्रिय पर्यन्त त्रस पर्याय मिलती है। फिर वहीं एकेन्द्रियोंमें परिभ्रमण करना पड़ता है। इस तरह अनेक बार चढ-उतरकर नरकादि पर्यायोंमें दीर्घकालतक पंचेन्द्रियत्वका अनुभव करके घुणाक्षरन्यायसे मनुष्य जन्म प्राप्त होता है। फिर भी भ्रमण कर दुर्लभ देश कुल आदिको प्राप्त कर अल्पसंक्लेशसे विशुद्धव्यवसाय और प्रतिभाशक्ति सम्पन्न हो शुद्ध परिणामोंसे अन्तरात्माका प्रक्षालन होनेपर भी यदि योग्य उपदेश नहीं मिला तो सन्मार्गकी प्राप्ति नहीं होती और वह कुतीर्थोंके मिथ्यामार्गमें भटककर फिर जन्माटवीमें परिभ्रमण करता है। इस तरह पूर्वोक्तक्रमसे ज्ञानावरणादि कर्मोंके क्षयोपशमसे विशुद्धियुक्त होकर उपदेश द्वारा जैनमतको कदाचित् सुनकर प्रतिबन्धी कौंको मन्दकर कदाचित् श्रद्धान भी करता है। जैसे कतकफलके सम्पर्कसे जलका मैल नीचे बैठ जाता है और जल निर्मल हो जाता है उसी तरह असदुपदेशसे अतिमलिन मिथ्यात्वके उपशमसे आत्मनिर्मलताको पाकर श्रद्धानाभिमुख हो असंख्यातगुणी निर्जरा करता है और अभूतपूर्व परिणामोंसे प्रथम सम्यक्त्वके सम्मुख होता है तथा जिनेन्द्र के वचनोंमें परमरुचि और श्रद्धा करता हुआ उपशम सम्यग्दृष्टि होता है। फिर सम्यक्त्वभावनारूप अमृतरससे विशुद्धिको बढ़ाता हुआ मिथ्यात्वघाती शक्तिका आविर्भाव होनेसे धान्यको कूटनेसे जैसे तुप कण और चाँवल जुदे हो जाते हैं उसी तरह मिथ्यादर्शनके मिथ्यात्व सम्यङमिथ्यात्व और सम्यक्त्व ये तीन विभाग कर देता है। इसमें सम्यक्त्वका वेदन करता हुआ सद्भूत पदार्थका श्रद्धान करनेवाला वेदक सम्यग्दृष्टि होता है। फिर प्रशम संवेगादि गुणोंका धारी जिनेन्द्रगक्तिसे: बढ़ी हुई विपुल भावनाओंका आगार यह केवलीके पादमूलमें मोहका क्षय करना प्रारम्भ करता है। दर्शनमोहके क्षयकी समाप्ति तो चारों गतियों में हो सकती है। इस तरह मिथ्यात्वका निराकरण कर क्षायिक सम्यग्दृष्टि हो जाता है। शंकादि दोषोंसे रहिन, कुसमयोंसे अक्षुब्ध बुद्धिवाला, सत्पदार्थों की उपलब्धि करनेवाला और मोहतिमिर पटलसे विमुक्तदृष्टियुक्त यह जैनेन्द्रपूजा प्रवचनवात्सल्य और संयमादि प्रशंसामें तत्पर रहकर देशघातिकर्मोंके क्षयोपशमसे संयमासंयमको प्राप्त कर श्रावक हो जाता है। फिर विशुद्धिप्रकर्षसे समस्त गृहस्थ-सम्बन्धी परिग्रहांसे मुक्त हो निम्रन्थताका अनुभव कर महाव्रती बन जाता है। इसी तरह आगे-आगे विशुद्धिप्रकर्षसे असंख्यातगुणी निर्जरा होती है। १. क्षै धातुसे आत्व और मित्संज्ञा होकर ह्रस्वत्व होनेपर क्षपक शब्द बन जाता है। निम्रन्थोंके प्रकार पुलाकवकुशकुशीलनिर्ग्रन्थस्नातका निर्ग्रन्थाः ॥ ४६ ॥ ११. उत्तरगुणोंकी भावनारहित व्रतों में भी कभी-कभी पूर्णताको न पानेवाले बिना पके धान्यकी तरह पुलाक होते हैं। २. वकुश शब्द शबलका पर्यायवाची है। जो निम्रन्थ मूलवतोंका अखण्ड भावसे पालन करते हैं, शरीर और उपकरणकी सजावटमें जिनका चित्त है, ऋद्धि और यशकी कामना रखते हैं, सात और गौरवके आधार हैं, वित्तसे जिनके रिवारवृत्ति नहीं निकली है और छेदसे जिनका चित्त शबल अर्थात चित्रित है, वे वकुश हैं। .. ६३. कुशील दो प्रकार हैं-प्रतिसेवनाकुशील और कपायकुशील । परिग्रहकी भावना
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
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