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________________ ७८४ तस्वार्थवार्तिक-हिन्दी-सार [९।१८ और निषद्याकी प्रतिनिधि एक इस तरह दो परीषहोंको कम कर १७ की संख्याका निर्वाह कर लेना चाहिये ? उत्तर-अरति यदि रहती है तो परीषहजय नहीं कहा जा सकता। यदि साधु चर्याकष्टसे उद्विग्न होकर बैठ जाता है या बैठनेसे उद्विग्न होकर लेट जाता है तो परीषहजय कैसा ? यदि 'परीषहोंको जीतूंगा' इस प्रकारकी रुचि नहीं है तो वह परीषहजयी नहीं कहा जा सकता । अतः तीनों क्रियाओंके कष्टोंको जीतना और एकके कष्टके निवारणके लिए दूसरेकी इच्छा न करना ही परीषहजय है । अतः तीनोंको स्वतन्त्र और दंशमशकको एक ही परीषहजय मानना उचित है। चारित्र मोहके उपशम क्षय और क्षयोपशमसे होनेवाली आत्मविशुद्धिकी दृष्टिसे चारित्र एक है । प्राणिसंयम और इन्द्रियसंयमकी अपेक्षा दो प्रकारका है। उत्कृष्ट मध्यम और जघन्य विशुद्धिके भेदसे तीन प्रकारका है। छमस्थोंका सराग और वीतराग तथा सर्वझोंका सयोग और अयोग, इस तरह चार प्रकारका भी चारित्र होता है और सामायिकछेदोपस्थापनापरिहारविशुद्धिसूक्ष्मसाम्पराययथाख्यातमिति चारित्रम् ॥१८॥ ६१-५. आय-अनर्थ हिंसादि, उनसे सतर्क रहना । सभी सावध योगोंका अभेद रूपसे सार्वकालिक त्याग अथवा नियत समय तक त्याग सामायिक हैं। सामायिकको गुप्ति नहीं कह सकते क्योंकि गुप्तिमें तो मनके व्यापारका भी निग्रह किया जाता है जब कि सामायिकमें मानस प्रवृत्ति होती है । इसे प्रवृत्तिरूप होनेसे समिति भी नहीं कह सकते क्योंकि सामायिक चारित्रमें समर्थ व्यक्तिको ही समितियों में प्रवृत्तिका उपदेश है । सामायिक कारण है और समिति कार्य । यद्यपि संयमधर्ममें चारित्रका अन्तर्भाव हो सकता है; पर चारित्र मोक्षप्राप्तिका साक्षात् कारण है और वह समस्त कमोंका अन्त करनेवाला है इस बातकी सूचना देने के लिए उसका पृथक् और अन्तमें वर्णन किया है। ६-७. स-स्थावर जीवोंकी उत्पत्ति और हिंसाके स्थान चूँकि छद्मस्थके अप्रत्यक्ष हैं अतः प्रमादवश स्वीकृत निरवद्यक्रियाओंमें दूषण लगनेपर उसका सम्यक् प्रतीकार करना छेदोपस्थापना है। अथवा, सावद्यकर्म हिंसादिके भेदसे पाँच प्रकारके हैं, इत्यादि विकल्पोंका होना छेदोपस्थापना है। ८. जिसमें प्राणिवधके परिहारके साथ ही साथ विशिष्ट शुद्धि हो वह परिहारविशुद्धि चारित्र है। यह चारित्र तीस वर्ष की आयुवाले तीन वर्षसे ९ वर्षतक जिसने तीर्थकरके पादम की सेवा की हो, प्रत्याख्यान नामक पूर्वके पारङ्गत, जन्तुओंकी उत्पत्ति विनाशके देशकाल द्रव्य आदि स्वभावोंके जानकार अप्रमादी, महावीर्य, उत्कृष्ट निर्जराशाली, अतिदुष्कर चर्याका अनुष्ठान करनेवाले और तीनों संध्या कालके सिवाय दो कोश गमन करनेवाले साधुके ही होता है अन्यके नहीं। ६९-१०. स्थूल-सूक्ष्म प्राणियोंके वधके परिहारमें जो पूरी तरह अप्रमत्त है, अत्यन्त निर्बाध उत्साहशील, अखण्डितचारित्र, सम्यग्दर्शन और सख्यग्ज्ञानरूपी महापवनसे धोंकी गई प्रशस्त-अध्यवसायरूपी अमिकी ज्वालाओंसे जिसने कर्मरूपी ईंधनको जला दिया है, ध्यानविशेषसे जिसने कषायके विषांकुरोंको खोंट दिया है, सूक्ष्म मोहनीय कर्मके बीजको भी जिसने नाशके मुखमें ढकेल दिया है उस परम सूक्ष्म लोभ कषायवाले साधुके सूक्ष्मसाम्पराय चारित्र होता है। यह चारित्र प्रवृत्ति निरोध या सम्यक् प्रवृत्ति रूप होने पर भी गुप्ति और समितिसे भी आगे और बढ़कर है। यह दसवें गुणस्थानमें, जहाँ मात्र सूक्ष्म लोभ टिमदिमाता है, होता है, अतः पृथक् रूपसे निर्दिष्ट है। ६११-१२. चारित्रमोहके सम्पूर्ण उपशम या क्षयसे आत्मस्वभावस्थितिरूप परम
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
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