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________________ ७७६ तत्त्वार्थवार्तिक-हिन्दी-सार [९७ न्द्रिय आदि अनिवृत्तिबादर गुणस्थानतक तथा लोभकषायमें सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थान तकके जीव होते हैं। इससे आगेके जीव अकषाय होते हैं। मत्यज्ञान और श्रुताज्ञानमें एकेन्द्रिय आदि सासादनसम्यग्दृष्टि पर्यन्त जीव होते हैं। विभंगावधिमें संज्ञिमिथ्यादृष्टि या सासादनसम्यग्दृष्टि पर्याप्तक ही होते हैं अपर्याप्तक नहीं । सम्यमिथ्यादृष्टि अज्ञानसे मिश्रित तीनों ज्ञानोंमें होते हैं क्योंकि कारणसदृश कार्य होता है। मतिश्रुत और अवधिज्ञानमें असंयत सम्यग्दृष्टि आदिक्षीणकषाय गुणस्थानतक, मनःपर्ययज्ञानमें प्रमत्तसंयत आदि क्षीणकषाय गुणस्थान पर्यन्त तथा केवलज्ञानमें सयोगी और अयोगी ये दो गुणस्थान होते हैं। सामायिक छेदोपस्थापनाशुद्धि संयममें प्रमत्तसंयतसे अनिवृत्तिबादरसाम्पराय तक परिहारविशुद्धिमें प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत, सूक्ष्मसाम्परायमें एक सूक्ष्मसाम्पराय, यथाख्यातविहारशुद्धिसंयममें उपशान्तकषाय क्षीणकषाय सयोगी और अयोगी ये चार गुणस्थान, और संयमासंयममें एक संयतासयत गुणस्थान होता है । असंयममें आदिके चार गुणस्थान होते हैं। चक्षुदर्शनमें चतुरिन्द्रियसे लेकर बारहवें क्षीणकषाय गुणस्थानतक, अचक्षुदर्शनमें एकेन्द्रियसे लेकर क्षीणकषाय गुणस्थानतक, अवधिदर्शनमें असंयत सम्यग्दृष्टिसे क्षीणकषाय गुणस्थानतक और केवल दर्शनमें सयोगी और अयोगी ये दो गुणस्थान होते हैं । आदिकी तीन लेश्याओंमें एकेन्द्रिय आदि असंयत सम्यग्दृष्टितक, तेज और पद्मलेश्यामें संझिमिथ्या दृष्टिसे अप्रमत गुणस्थानतक और शुक्ललेश्यामें संझिमिथ्यादृष्टिसे सयोगकेवलीतक होते हैं । अयोगकेवली अलेश्य हैं । भव्योंमें चौदहों गुणस्थान तथा अभव्यों में एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान होता है। क्षायिक सम्यक्त्वमें असंयत सम्यग्दृष्टि आदि अयोगकेवलीतक, वेदक सम्यक्त्वमें असंयत सम्यग्दृष्टि-आदि अप्रमत्त संयततक, औपशमिक सम्यक्त्वमें असंयत सम्यग्दृष्टि आदि उपशान्त कषायतक तथा सासादन सम्यक्त्व सम्यकमिथ्यात्व और मिथ्यात्वमें एक अपना अपना गुणस्थान होता है। नारकोंमें प्रथमपृथिवीमें क्षायिक वेदक और औपशमिक सम्यग्दृष्टि तथा अन्य पृथिवियों में वेदक और औपशमिक सम्यग्दृष्टि होते हैं। तिर्यचों में असंयत सम्यग्दृष्टि स्थानमें क्षायिक वेदक और औपशमिक तीनों सम्यक्त्व है। संयतासंयत स्थानमें क्षायिक नहीं है अन्य दो है; क्योंकि क्षायिक सम्यक्त्वके साथ पूर्वबद्धतियंचायु प्राणी भोगभूमिमें ही उत्पन्न होता है । यिंचियोंमें दोनों स्थानों में क्षायिक सम्यक्त्व नहीं होता क्योंकि क्षपणाको आरम्भ करनेवाला पुरुषलिंगी मनुष्य ही होता है। मनुष्यों में असंयत सम्यग्दृष्टि संयतासंयत और संयत स्थानोंमें क्षायिक वेदक और औपशमिक तीनों सम्यक्त्व हैं । भवनवासी व्यन्तर ज्योतिषी देवों और उनकी देवियों में तथा सौधर्म ऐशान कल्पवासिनी देवियोंमें असंयत सम्यग्दृष्टि स्थानमें क्षायिक सम्यक्त्व नहीं होता अन्य दो होते हैं । सौधर्म आदि उपरिम अवेयक पर्यन्त क्षायिक वेदक और औपशमिक तीनों सम्यक्त्व हैं। अनुदिश और अनुत्तर विमानवासी देवोंमें क्षायिक और वेदक सम्यक्त्व हैं, औपशामक भी उपशम श्रेणी में मरनेवालोंकी अपेक्षा हो सकता है। संज्ञित्वमें संज्ञिमिथ्यादृष्टि आदि क्षीणकषायपर्यन्त तथा असंज्ञित्वमें एकेन्द्रिय आदि असंज्ञि पञ्चेन्द्रिय तक होते हैं। संज्ञिअसंज्ञि उभय विकल्पसे परे जीवोंमें सयोगी और अयोगी दो गुणस्थान होते हैं। आहारमें एकेन्द्रिय आदि सयोगकेवलीपर्यन्त तथा अनाहारमें विग्रहगतिमें मिथ्यादृष्टि सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि, प्रतर और लोकपूरण अवस्थामें सयोगकेवली और अयोगकेवली ये पाँच गुण स्थान होते हैं । सिद्ध गुणस्थानातीत हैं। ____इस प्रकार निःश्रेयसहेतु धर्मका भगवान् अर्हन्तने कितना सुन्दर व्याख्यान किया है, यह विचार करना धर्मस्वाख्यातत्व अनुप्रीक्षा है। इससे धर्मके प्रति अनुराग होता है। इसतरह अनुप्रेक्षाओंसे उत्तमक्षमा आदि धर्मोका संधारण होता है तथा महान् संयम होता है। १२-१६. 'स्वाख्यात' में 'सु' उपसर्गके साथ समास है अतः उसके योगमें अकृच्छा
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
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