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________________ ७७४ तत्त्वार्थवार्तिक-हिन्दी-सार [९७ का मन वचन और कायवर्गणानिमित्तक आत्मप्रदेशका परिस्पन्द योग है। वह पन्द्रह प्रकारका है। सत्य मृषा उभय और अनुभयके भेदसे मनोयोग और वचनयोग चार-चार प्रकारके हैं। औदारिककाययोग औदारिकमिश्रकाययोग वैक्रियिक वैक्रियिकमित्र आहारक आहारकमित्र और कार्मण ये सात काययोग हैं। आत्मामें सम्मोहरूप प्रवृत्ति उत्पन्न होना वेद है। वह नोकषायके उदयसे तीन प्रकारका है-स्त्रीवेद पुंवेद और नपुंसकवेद । आत्मामें अपगतवेद अवस्था औपशमिक भी होती है और क्षायिक भी। जो चारित्रपर्यायको कषे वह कषाय है । क्रोध मान माया और लोभ ये चार कषाय हैं । अकषायत्व औपशमिक भी है और क्षायिक भी । तत्त्वार्थबोध ज्ञान है । मति आदि पाँच प्रकारके ज्ञान हैं । मिथ्यादर्शनके उदयसे मति श्रुत और अवधि कुज्ञान भी होते हैं । व्रत समिति कषायनिग्रह दण्डत्याग और इन्द्रियजय आदि संयम है । संयम और संयमासंयम आदि चारित्रमोहके उपशम क्षय और क्षयोपशमसे होते हैं। सबसे अतीत सिद्धत्व क्षायिक है । दर्शनावरणके क्षय और क्षयोपशमसे होनेवाला आलोचन दर्शन है। चक्षु अचक्षु अवधि और केवलके भेदसे चार प्रकारका दर्शन है । कषायसे अनुरंजित योगप्रवृत्ति लेश्या है। वह कृष्ण नील कापोत पीत पद्म और शुक्लके भेदसे छह प्रकारकी है। निर्वाण पानेकी योग्यता जिसमें प्रकट हो सके वह भव्य और अन्य अभव्य हैं । ये दोनों पारिणामिक हैं। मुक्तजीव भव्य और अभव्य उभयसे अतीत हैं । तत्त्वार्थश्रद्धान सम्यक्त्व है । वह दर्शनमोहके उपशम क्षय या क्षयोपशमसे होता है । मिथ्यात्व औदयिक है । सासादनसम्यक्त्व अनन्तानुबन्धोके उदयसे होता है अतः औदयिक है। सम्यकृमिथ्यात्व क्षायोपशमिक है। शिक्षा क्रिया और आलाप आदिको प्रहण करनेवाला संज्ञी और विपरीत असंझी है । संशित्व क्षायोपशमिक है असंशित्व औदयिक है और उभयसे परेकी अवस्था क्षायिक है । उपभोग्य शरीरके योग्य पुद्गलोंका ग्रहण आहार है, विपरीत अनाहार है। शरीर नाम कर्मके उदय और विग्रह गति नामके उदयसे आहार होता है। तीनों शरीर नाम कर्मके उदयके अभाव तथा विग्रहगति नामके उदयसे अनाहार होता है। ये चौदह मार्गणाएँ हैं। इनमें जीव स्थानोंकी सत्ता का विचार करते हैं । तिर्यच गतिमें चौदह ही जीवस्थान हैं। अन्य तीन गतियोंमें पर्याप्तक और अपर्याप्तक ये दो ही जीवस्थान हैं। एकेन्द्रियमें चार विकलेन्द्रियोंमें दो दो और पञ्चेन्द्रियोंमें चार होते हैं। पृथिवी जल अग्नि और वायुकायिकोंमें प्रत्येकके चार, वनस्पति कायिकोंमें छह और त्रस कायिकोंमें दस जीवस्थान होते हैं । मनोयोगमें एक संझिपर्याप्ततक जीवस्थान हैं। वाग्योगमें द्वि त्रि चतुरिन्द्रिय संझि-असंझि पर्याप्तक ये पाँच जीवस्थान हैं। काययोगके चौदह ही जीवस्थान हैं । स्त्रीवेद पुरुषवेदमें संज्ञि असंझि पर्याप्तक अपर्याप्तक ये चार जीवस्थान हैं । नपुंसकवेदमें चौदह हैं । अवेदमें एक संक्षिपर्याप्तक स्थान है। चारों कषायोंमें चौदह और अकषायमें एक संज्ञिपर्याप्तक स्थान है। मत्यज्ञान और श्रुताज्ञानमें चौदह, विभंगावधि और मनःपर्ययमें एक संक्षिपर्याप्तक, तथा मति श्रुत अवधिज्ञानमें संक्षिपर्याप्तक और अपर्याप्तक दो और केवलज्ञानमें एक संक्षिपर्याप्तक जीवस्थान हैं। सामायिक छेदोपस्थापना परिहारविशुद्धि सूक्ष्मसाम्पराय यथाख्यात संयममें एक ही संक्षिपर्याप्तक जीवस्थान हैं। असंयममें चौदह ही जीवस्थान हैं। अचक्षुदर्शनमें चौदह, चक्षुदर्शनमें चतुरिन्द्रिय संज्ञि असंक्षिपर्याप्तक ये तीन जीवस्थान होते हैं। इनके लब्ध्यपर्याप्तक होते हैं निवृत्त्यपर्याप्तक नहीं। अवधि दर्शनमें संझिपर्याप्तक और अपर्याप्तक दो जीवस्थान होते हैं। केवलदर्शनमें एक संझिपर्याप्तक हो स्थान होता है। आदिकी तीन लेश्याओंमें चौदह, तेज पद्म और शुक्ल लेश्यामें संज्ञिपर्याप्तक और अपर्याप्तक दो जीवस्थान होते हैं। अलेश्यों में एक संक्षिपर्याप्तक स्थान है । भव्य और अभव्यमें चौदह ही जीवस्थान हैं। औपशमिक क्षायिक क्षायोपशमिक सम्यक्त्व और सासादनसम्यक्त्वमें संलिपर्याप्तक और अपर्याप्तक दो जीवस्थान,
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
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