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________________ ७६६ तत्त्वार्थवार्तिक-हिन्दी-सार [९/६ जैसे विशिष्ट पात्रके न मिलने पर जिस किसी पात्रमें भोजन करनेसे चित्तमें दीनता और हीनताका अनुभव होना अनिवार्य है। अतः स्वावलम्बी भिक्षको करपात्रके सिवाय अन्य प्रकार उपयुक्त नहीं हैं। 'जिस प्रकार पहिले प्राप्त हुए संस्कृत सुस्वादु अन्नको छोड़कर अन्यके घरमें जैसा तैसा नीरस भोजन करने में भिक्षुको दीनता नहीं आती उसी तरह कपाल आदिके ग्रहण करनेमें कोई दोष नहीं हैं। यह समाधान ठीक नहीं है क्योंकि चिरतपस्वी संयतकी शरीरयात्रा आहारके बिना नहीं चल सकती, अतः नीरस प्रासुक आहार कभी कभी ले लिया जाता है उस तरह पात्रकी आवश्यकता अनिवार्य नहीं है। धर्मका वर्णन उत्तमक्षमामार्दवार्जवशौचसत्यसंयमतपस्त्यागा किञ्चन्यब्रह्मचर्याणि धर्मः ॥ ६॥ उत्तमक्षमा आदि दस धर्म हैं। ६१. गुप्तियोंमें प्रवृत्तिका सर्वथा निरोध होता है। जो उसमें असमर्थ है उन्हें प्रवृत्तिके सम्यक प्रकार बतानेके लिए एषणा आदि समितियोंका उपदेश है । प्रवृत्ति करने वालेके प्रमाद परिहारके लिए-सावधानीसे वरतनेके लिए उत्तमक्षमा आदि धर्मोंका उपदेश है। २. शरीर-यात्राके लिए पर-घर जाते समय भिक्षुको दुष्ट जनोंके द्वारा गाली हँसी अवज्ञा ताड़न शरीर-छेदन आदि क्रोधके असह्य निमित्त मिलनेपर भी कलुषताका न होना उत्तम क्षमा है। ३. उत्तम जाति कुल रूप विज्ञान ऐश्वर्य श्रुत लाभ और शक्तिसे युक्त होकर भी इनका मद नहीं करना, दूसरेके द्वारा परिभवके निमित्त उपस्थित किये जानेपर भी अभिमान नहीं होना मानहारी मार्दव है। ६४. मन वचन और कायमें कुटिलता न होना आर्जव-सरलता है। $ ५-८. आत्यन्तिक लोभकी निवृत्तिको शौच कहते हैं। शुचिका भाव या कर्म शौच है। मनोगुप्तिमें मनके व्यापार का सर्वथा निरोध किया जाता है। जो पूर्ण मनोनिग्रहमें असमर्थ हैं उन्हें पर वस्तुओं सम्बन्धी अनिष्ट विचारोंकी शान्ति के लिए शौच धर्मका उपदेश है । अतः इसका मनोगुप्तिमें अन्तर्भाव नहीं होता। आकिंचन्य धर्म स्वशरीर आदिमें संस्कार आदिकी अभिलाषा दूर करके निर्ममत्व बढ़ानेके लिए है और शौच धर्म लोभकी निवृत्तिके लिए, अतः दोनों पृथक् हैं । स्व और पर विषयक जीवनलोभ आरोग्यलोभ इन्द्रियलोभ और उपभोगलोभ इस तरह मुख्यतः चार प्रकारका लोभ होता है। इसीलिए शौच धर्म मुख्यतः चार प्रकारका होता है। ९-१०. सत्जनोंसे साधुवचन बोलना सत्य है। भाषा समितिमें संयत साधु या असाधु किसीसे भी वचन व्यवहार यदि करे तो हित और मित करे अन्यथा राग और अनर्थदण्ड आदि दोष होते है परन्तु सत्य धर्ममें अपने सहधर्मी साधुओं या भक्तोंसे धर्मवृद्धिनिमित्त या ज्ञान चारित्र आदिकी शिक्षाके लिए बहुत बोलना भी स्वीकृत हैं। ११-१४. ईर्यासमिति आदिमें प्रवर्तमान मुनिको उनकी प्रतिपालनाके लिए प्राणिपीड़ाका परिहार और इन्द्रियोंसे विरक्तिको संयम कहते हैं। एकेन्द्रियादि जीवोंकी हिंसाका परिहार करना प्राणिसंयम है और शब्दादि विषयोंसे विरक्तिको इन्द्रियसंयम कहते हैं। अतः भाषादिकी निवृत्तिको संयम नहीं कह सकते; क्योंकि इसका निवृत्तिरूप गुप्तियों में अन्तर्भाव है। विशिष्ट कायादिप्रवृत्तिको भी सयम नहीं कह सकते क्योंकि वह समितिमें अन्तर्भूत हो जाती है। इसी तरह आत्यन्तिक त्रसस्थावरवधका निषेध भी संयम नहीं कहा जा सकता क्योंकि वह परिहारविशुद्धि चारित्रमें अन्तर्भूत हो जाता है। हो जाता
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
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