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________________ तत्त्वाथवार्तिक-हिन्दी-सार [१ तीनों ज्ञान सम्यग्ज्ञान होते हैं। तत्स्वार्थश्रद्धान होनेसे आगेके सभी गुणस्थानोंमें नियमसे सम्यक्त्व होता है। १६. पाँचवाँ तथा आगेके गुणस्थान चारित्रमोहके उपशम क्षय या क्षयोपशमसे होते हैं। अनन्तानुबन्धिकषाय क्षीण हों या अक्षीण ये तथा अप्रत्याख्यानावरण कषाय सर्वघाती हैं, इनका उदयक्षय या सदवस्थारूप उपशम होनेपर, तथा सर्वघाती प्रत्याख्यानावरणके उदयसे संयमलब्धिका अभाव होनेपर एवं देशघाती संज्वलन और नौ नोकषायोंके उदयमें संयमासंयम लब्धि होती है । इसके होनेपर प्राणी और इन्द्रियविषयक विरताविरत परिणामवाला संयतासंयत कहलाता है। १७. क्षीण या अक्षीण अनन्तानुबन्धी कषायोंका उदयक्षय होनेपर तथा अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण कषायोंका उदयक्षय या सदवस्था उपशम होनेपर और संज्वलन तथा नोकषायोंका उदय होनेपर संयमलब्धि होती है। आभ्यन्तर संयम परिणामोंके अनुसार बाह्यसाधनोंके सन्निधानको स्वीकार करता हुआ यह प्राणिसंयम और इन्द्रियसंयमको पालता हुआ भी पन्द्रह प्रकारके प्रमादोंके वश कहीं कभी चारित्रपरिणामोंसे स्खलितसा होता रहता है। अतः प्रमत्तसंयत कहलाता है। १८. प्रमादका अभाव होनेसे अविचलित संयमी अप्रमत्तसंयत कहलाता है। इसके आगेके चार गुणस्थानोंकी दो श्रेणियाँ हो जाती हैं-उपशमश्रेणी और क्षपकश्रेणी। जहाँ मोहनीयकर्मका उपशम करता हुआ आत्मा आगे बढ़ता है वह उपशमश्रेणी है और जहाँ क्षय करता हुआ आगे जाता है वह क्षपकश्रेणी है। १९. अपूर्व करणरूप परिणामोंकी विशुद्धिसे श्रेणी चढ़नेवाला अपूर्वकरण है यद्यपि यहाँ न तो कर्मप्रकृतियोंका उपशम होता है और न क्षय फिर भी आगे होनेवाले उपशम या क्षयकी दृष्टिसे इस गुणस्थानमें भी उपशमक और क्षपक व्यवहार पीके घड़ेकी तरह हो जाता है। २०. अनिवृत्तिकरण रूप परिणामोंकी विशुद्धिसे कर्मप्रकृतियोंको स्थूलरूपसे उपशम या क्षय करनेवाला उपशमक-क्षपक अनिवृत्तिकरण होता है। २१. सम्पराय-कषायोंको सूक्ष्मरूपसे भी उपशम या क्षय करनेवाला सूक्ष्मसाम्परायउपशमक-क्षपक है। २२. समस्तमोहंका उपशम करनेवाला उपशान्तकषाय तथा क्षय करनेवाला क्षीणकषाय होता है। ६२३. चार घातिया कोंके अत्यन्त क्षयसे जिन्हें अचिन्त्य केवल ज्ञानातिशय प्रकट हुआ है वे केवली भगवान है। २४. 'योग सहित सयोग केवली तथा योगरहित-अयोगकेवली' इस प्रकार केवली दो प्रकारके है। ६२५. मिथ्यात्वको प्रधानतासे जो कर्म आते हैं, मिथ्यात्वका निरोध हो जानेसे उनका सासादन सम्यग्दृष्टि आदि गुणस्थानों में संवर होता है। मिथ्यात्व नपुंसकवेद नरकायु नरकगति एकद्वित्रिचतुरिन्द्रियजाति हुंडकसंस्थान असंप्राप्तामृपाटिकासंहनन नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्व्य आतप स्थावर सूक्ष्म अपर्याप्तक और साधारण शरीर ये सोलह प्रकृतियाँ मिथ्यात्वनिमित्तक हैं। ६२६-२७. अनन्तानुबन्धी अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यानके भेदसे असंयम तीन प्रकारका है । अतः इन कषायनिमित्तक कोका इनके अभावमें संवर होता है। निद्रा निद्रा प्रचलाप्रचला स्त्यानगृद्धि, अनन्तानुबन्धीक्रोध मान-माया लोभ, स्त्रीवेद, तियंचायु, वियंचगति, चार संस्थान, चार संहनन, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्व्य, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दु:स्वर, अनादेय और नीचगोत्र इन अनन्तानुबन्धीनिमित्तक पञ्चीस प्रकृतियोंका एकेन्द्रिय
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
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