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________________ ७५८ तत्त्वार्थवार्तिक-हिन्दी-सार [८।२२-२३ को छोड़कर शेष सजातीय प्रकृतियोंका परमुखसे भी विपाक होता है। नरकायु नरकायु रूपसे ही फल देगी मनुष्यायु या तिर्यंचायु आदि रूपसे नहीं। इसी तरह दर्शनमोह' चारित्रमोह रूपसे या चारित्रमोह दर्शनमोह रूपसे फल नहीं देगा। यह अनुभाग कोके अपने नामके अनुसार होता है। स यथानाम ॥२२॥ १. ज्ञानावरण आदि जिसका जैसा नाम है उसीके अनुसार ज्ञानका आवरण, दर्शनका आवरण आदि फल देते हैं। उत्तर प्रकृतियों में भी इसी तरह समझना चाहिए। सभी कर्म यथा नाम तथा गुणवाले हैं। ततश्च निर्जरा ॥२३॥ फल देनेके बाद कर्मोकी निर्जरा हो जाती है। ६१-२. आत्माको सुख या दुःख देकर, खाये हुए आहारके मलकी तरह स्थितिके क्षय होनेसे झड़ जाना निर्जरा है। निर्जरा दो प्रकारकी है-विपाकजा और अविपाकजा। चतुर्गतिमहासागरमे चिर परिभ्रमणशील प्राणीके शुभ अशुभ कर्मोका औदयिकभावोंसे उदयावलिमें यथाकाल प्रविष्ट होकर जिसका जिस रूपमें बन्ध हुआ है उसका उसी रूपमें स्वाभाविक क्रमसे फल देकर स्थिति समाप्त करके निवृत्त हो जाना विपाकजा निर्जरा है । जिन कोका उदयकाल नहीं आया है उन्हें मी तपविशेष आदिसे बलात् उदयावलिमें लाकर पका देना अविपाक निर्जरा है। जैसे कि कच्चे आम या पनस फलको प्रयोगसे पका दिया जाता है। ३-५. 'च'शब्दसे संवरके प्रकरणमें कहे जानेवाले 'तप'का संग्रहहो जाता है। अर्थात् फल देकर भी निर्जरा होती है तथा तपसे भी। यद्यपि संवरके बाद निर्जराके वर्णनका क्रम आता है फिर भी लाघवके विचारसे विपाकके बाद ही निर्जराका वर्णन कर दिया है। अनुभाग बन्धमें पुण्य-पापकी तरह निर्जराका अन्तर्भाव नहीं हो सकता क्योंकि दोनोंका अर्थ जुदा-जुदा है । फलदान शक्तिको अनुभव कहते हैं और जिनका फलानुभव किया जा चुका है ऐसे निर्वीर्य कर्मपुद्गलोंकी निवृत्ति निर्लरा कहलाती है। इसीलिए 'ततश्च' यह अपादान निर्देश बन जाता है । यदि भेद न होता तो अपादान प्रयोग नहीं हो सकता था। ६६-७. प्रश्न यहाँ 'ततो निर्जरा तपसा च' ऐसा लघुसूत्र बना देना चाहिए, इसमें आगे 'निर्जरा' पदका ग्रहण नहीं करना पड़ेगा ? उत्तर-संवरहेतुताका द्योतन करनेके लिए तपको संवरके प्रकरणमें ही ग्रहण करना उचित है, अर्थात् तपसे निर्जरा भी होती है और संवर भी। यद्यपि उत्तम क्षमा आदि धामें किया गया तपका निर्देश संवरहेतुताका द्योतन कर देता है और यहाँ कह देनेसे उसकी निर्जराहेतुता मालूम पड़ जाती है अतः पृथक् 'तपसा निर्जरा च' सूत्र बनाना निरर्थक सा ज्ञात होता है फिर भी सभी संवर और निर्जराके कारणोंमें तपकी प्रधानता सूचित करने के लिए तपको पृथक रूपसे ग्रहण किया है । कहा भी है-“काय, मन और अनेक प्रकारक तप करता है वह मनुष्य विपुल कर्म निर्जराको करता है। अतः यहाँ तपका निर्देश करनेमें गौरव होता। . ये कर्म प्रकृतियाँ घाती और अघातीके भेदसे दो प्रकारकी हैं। घाती भी सर्वघाती और देशघाती इन दो भेदोंवाली है। केवलज्ञानावरण निद्रा-निद्रा प्रचला-प्रचला स्त्यानगृद्धि निद्रा प्रचला केवलदर्शनावरण बारह कषाय और दर्शनमोह ये बीस प्रकृतियाँ सर्वघाती हैं। शेष चार ज्ञानावरण, तीन दर्शनावरण, पाँच अन्तराय, संज्वलन और नव नोकषायें देशघाती हैं। बाकी प्रकृतियाँ अघाती हैं । शरीरनाम से लेकर स्पर्श पर्यन्त नाम प्रकृतियाँ अगुरुलघु उपघात परघात आतप उद्योत प्रत्येकशरीर साधारणशरीर स्थिर-अस्थिर शुभ-अशुभ और निर्माण ये प्रकृतियाँ
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
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