SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 329
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७॥३५-३९] सातवाँ अध्याय ७४१ कारण आवश्यक क्रियाओंमें उत्साह नहीं रखना तथा स्मृत्यनुपस्थान-चित्तकी एकाग्रताका अभाव ये पाँच प्रोषधोपवास व्रतके अतिचार हैं। सचित्तसम्बन्धसम्मिश्राभिषवदुष्पक्काहाराः ॥ ३५॥ ६१-६. सचित्त-चेतन द्रव्य । सचित्तसे सम्बन्ध और सचित्तसे मिश्र । सम्बन्धमें केवल संसर्ग विवक्षित है तथा सम्मिश्रणमें सूक्ष्म जन्तुओंसे आहार ऐसा मिला हुआ होता है जिसका विभाग न किया जा सके। प्रमाद तथा मोहके कारण क्षुधा तृषा आदिसे पीड़ित व्यक्तिकी जल्दीजल्दीमें सचित्त आदि भोजन पान अनुलेपन तथा परिधान आदिमें प्रवृत्ति हो जाती है । द्रव सिरका आदिऔर उत्तेजक भोजन अभिषव कहलाता है। जो अच्छी तरह नहीं पकाया गया हो वह दुष्पक्क आहार है। इसके भोजनसे इन्द्रियाँ मत्त हो जाती हैं। सचित्तप्रयोगसे वायु आदि दोषोंका प्रकोप हो सकता है और उसका प्रतीकार करने में पाप लगता है, अतिथि उसे छोड़ भी देते हैं । कृच्छ विवक्षामें 'दुष्पच' शब्द बनता है, यहाँ वह विवक्षा नहीं है अतः दुष्पक प्रयोग किया है। ये पाँच उपभोगपरिभोगसंख्यान व्रतके अतिचार हैं। सचित्तनिक्षेपापिधानपरव्यपदेशमात्सर्यकालातिक्रमाः ॥३६॥ ६१-५. सचित्त-कमलपत्र आदिमें आहार रखना, सचित्तसे ढंक देना, 'दूसरी जगह दाता हैं, यह देय पदार्थ अन्यका है' इस तरह दूसरेके बहाने देना, दान देते समय आदरभाव नहीं रखना, साधुओंके भिक्षाकालको टाल देना कालातिक्रम है, ये अतिथिसंविभाग व्रतके अतीचार हैं। सल्लेखनाके अतीचार जीवितमरणाशंसामित्रानुरागसुखानुबन्धनिदानानि ॥३०॥ ११-६. अवश्य नष्ट होनेवाले शरीरके ठहरनेकी अभिलाषा जीविताशंसा-जीनेकी इच्छा है। रोग आदिकी तीव्र पीड़ासे जीनेमें संक्लेश होनेपर मरनेकी आकांक्षा करना मरणाशंसा है। जिनके साथ बचपनमें धूलमें खेले हैं, जिनने आपत्तिमें साथ दिया और उत्सव में हाथ बटाया उन मित्रोंका स्मरण मित्रानुराग है हेले भोगे गये भोग क्रीड़ा शयन आदिका स्मरण करना सुखानुबन्ध है । आगे भोगोंकी आकाँक्षा करना निदान है। ये पाँच सल्लेखनाके अतीचार है। दानका लक्षण अनुग्रहार्थं स्वस्यातिसर्गो दानम् ॥३८॥ $ १-२. स्वोपकार और परोपकारको अनुग्रह कहते हैं। पुण्यका संचय स्वोपकार है और पात्रकी सम्यग्ज्ञान आदिकी वृद्धि परोपकार है। स्व शब्दके आत्मा आत्मीय ज्ञाति धन आदि अनेक अर्थ होते हैं, पर यहाँ स्वशब्द धनका वाचक है। अनुग्रहके लिए धनका त्याग दान है। विधिद्रव्यदातपात्रविशेषात्त द्विशेषः ॥३९॥ $१-२. प्रतिग्रह उच्चस्थान पादप्रक्षालन अर्चन प्रणाम आदि क्रियाओंको विधि कहते हैं । यहाँ विशेषता गुणकृत समझनी चाहिए। विधिविशेष अर्थात् प्रतिप्रह आदिमें आदरपूर्वक प्रवृत्ति करना। ६३-५. जो अन्न आदि द्रव्य लेनेवाले पात्रके स्वाध्याय ध्यान और परिणामशुद्धि आदिकी वृद्धिका कारण हो वह द्रव्य विशेप है । पात्रमें ईर्षा न होना, त्यागमें विषाद न होना, देनेकी इच्छा करनेवालेमें देनेवालेमें या जिसने दान दिया है सबमें प्रीति होना, कुशल अभिप्राय, प्रत्यक्ष फलकी आकांक्षा न करना, निदान नहीं करना, किसीसे विसंवाद नहीं करना आदि दाताकी विशेषताएँ हैं । मोक्षके कारणभूत सम्यग्दर्शन आदि गुण जिनमें पाये जायँ वे पात्र हैं ।
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy