SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 327
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७.२७-३०] सातवाँ अध्याय दे देना न्यासापहार है । प्रकरण और चेष्टा आदिसे दूसरेके अभिप्रायको समझकर ईर्षावश उसे प्रकट कर देना साकारमन्त्रभेद है । ये सत्याणुव्रतके अतिचार हैं। स्तनप्रयोगतदाहृतादानविरुद्धराज्यातिक्रमहीनाधिकमानोन्मानप्रतिरूपक ___ व्यवहाराः ॥ २७॥ ६१-५. चोरी करनेवालेको उपाय बताना और उसकी अनुमोदना करना स्तेनप्रयोग है। अपने द्वारा जिसे उपाय नहीं बताये और न जिसकी अनुमोदना ही की है, ऐसे चोरका चोरी किया हुआ माल खरीदना तदाहृतादान है। इसमें परपीड़ा राजभय आदि हैं। उचित-न्याय्य भागसे अधिक भाग दूसरे उपायोंसे ग्रहण करना अतिक्रम है। विरुद्धराज्य-राज्य परिवर्तनके समय अल्प मूल्यवाली वस्तुओंको अधिक मूल्यकी बताना । नापने तौलनेके तराजू आदिमें कम बाँटोंसे देना और अधिकसे दूसरेकी वस्तुको खरीदना हीनाधिकमानोन्मान है। कृत्रिम सोना चाँदी बनाकर या मिलाकर ठगी करना प्रतिरूपक व्यवहार है । ये अदत्तादानविरतिके अतिचार हैं। परविवाहकरणेत्वरिकापरिगृहीतापरिगृहीतागमनानङ्गक्रीडाकामतीव्रामि निवेशाः ॥ २८॥ १-५. सातावेदनीय और चारित्रमोहके उदयसे कन्याके वरणको विवाह कहते हैं । परका विवाह कराना । गान नृत्यादि कला चारित्रमोह स्त्रीवेदका उदय विशिष्ट अंगोपांगके लाभसे गमन करनेवाली इत्वरिका है। जिसका कोई स्वामी नहीं ऐसी वेश्या या पुंश्चली अपरिगृहीता है। जो एक पतिके द्वारा परिणीत है वह परिगृहीता है। इनसे सम्बन्ध रखना इत्वरिका परिगृहीता परिगृहीता-गमन है। काम सेवनके योनि आदि अंगोंके सिवाय अन्य अंगोंमें कामातिरेकवश क्रीड़ा करना अनंगक्रीड़ा है। तीव्रकामप्रवृत्ति, सतत कामवासनासे पीड़ित रहकर विषयसेवनमें लगे रहना कामतीब्राभिनिवेश है। दीक्षिता अतिबाला तथा पशुओं आदिमें मैथुनप्रवृत्ति करना कामतीब्राभिनिवेशके ही फल हैं । इन कार्यों में राजभय लोकापवाद आदि हैं। ये स्वदारसन्तोषव्रतके अतिचार हैं। क्षेत्रवास्तुहिरण्यसुवर्णधनधान्यदासीदासकुप्यप्रमाणातिक्रमाः ॥२९॥ ६१-२ क्षेत्र वास्तु आदि दो-दोका द्वन्द्व समास करके फिर कुप्यके साथ पूर्णद्वन्द्व करना चाहिये। क्षेत्र-खेत, वास्तु-मकान, हिरण्य-सोनेके सिक्के आदि, सुवर्ण-सोना, धन-गाय आदि, धान्य-चावल आदि, दासीदास-स्त्री और पुरुष भृत्य, कुप्य-कपास या कोसे आदिके वस्त्र और चन्दन आदि । 'मेरा इतना ही परिग्रह है इससे अधिक नहीं इस तरह मर्यादित क्षेत्र आदिसे अतिलोभके कारण मर्यादा बढ़ा लेना, स्वीकृत मर्यादाका उल्लंघन करना परिप्रहविरमण व्रतके अतिचार हैं। ऊर्ध्वाधस्तिर्यग्व्यतिक्रमक्षेत्रवृद्धिस्मृत्यन्तराधानानि ॥३०॥ ६१-९. दिशाओंकी की गई मर्यादाका लाँघ जाना अतिक्रम है। पर्वत और सीमाभूमि आदिसे ऊपर चढ़ जाना ऊर्ध्वातिक्रम है । कूप आदिमें नीचे उतरना अधोऽतिक्रम है। बिल गुफा आदिमें प्रवेश करके मर्यादा लाँघ जाना तिर्यग्व्यतिक्रम है । लोभ आदिके कारण स्वीकृत मर्यादाका परिमाण बढ़ा लेना क्षेत्रवृद्धि है । निश्चित मर्यादाको भूल जाना स्मृत्यन्तराधान है। इच्छापरिमाण नामक पाँचवे अणुव्रतमें इसका अन्तर्भाव नहीं हो सकता; क्योंकि उसमें क्षेत्र वास्तु आदिका परिमाण किया जाता है और दिग्विरतिमें दिशाओंकी मर्यादा की जाती है। इस दिशामें लाभ होगा अन्यत्र लाभ नहीं होगा और लाभालाभसे ही जीवन-मरणकी समस्या जुटी है फिर भी स्वीकृत दिशामर्यादासे आगे लाभ होनेपर भी गमन नहीं करना दिग्विरति है। दिशाओंका
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy