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________________ ७.१२-१३] सातवाँ अध्याय ७२९ अनाथ कृपण बाल वृद्ध आदि क्लिश्यमान जीवोंमें करुणाभाव रखने चाहिए। ग्रहण धारण विज्ञान और ऊहापोहसे रहित महामोहाभिभूत विपरीतदृष्टि और विरुद्धवृत्ति प्राणियोंमें माध्यस्थ्यकी भावना रखनी चाहिए। यह समझ लेना चाहिए कि ऐसे जीवोंमें वक्ताका हितोपदेश सफल नहीं हो सकता । इस तरह इन भावनाओंके द्वारा अहिंसादिव्रत परिपूर्ण होते हैं। जगत्कायस्वभावौ वा संवेगवैराग्यार्थम् ॥१२॥ संवेग और वैराग्यके लिए संसार और शरीरके स्वभावका विचार करना चाहिए। ६१-४. स्वभाव-असाधारण धर्म । विविध वेदनाके आकरभूत संसारसे भीरुता संवेग हैं । चारित्रमोहके उदयके अभावमें उसके उपशम क्षय और क्षयोपशमसे होनेवाले विषय विरक्त परिणाम वैराग्य हैं। आदिमान और अनादिपरिणामवाले द्रव्योंका समुदाय ही संसार है। इसकी रचना अनादिनिधन है। इसमें जीव नाना गतियोंमें अनेक प्रकारके दुःखोंको भोगते हुए परिभ्रमण करते हैं, इसमें कुछ भी नियत नहीं है, जीवन जलबुद्बुदके समान चपल है, बिजली और मेघ आदिके समान भोग-सम्पत्तियाँ क्षणभंगुर हैं, इत्यादि जगत्के स्वरूपकी भावना करनी चाहिए। शरीर अनित्य है, दुःख हेतु है, अशुचि है, निःसार है इत्यादि भावनाओंसे संवेग उत्पन्न होता है। इस तरह आरम्भ और परिग्रहमें दोष देखनेसे धर्ममें धार्मिकोंमें धर्मश्रवणमें और धार्मिकोंके दर्शन में आदरभाव और मनस्तुष्टि आदि होते हैं। आगे आगे गुणोंकी प्राप्तिमें श्रद्धा होती है और शरीर भोगोपभोग तथा संसारसे वैराग्य उत्पन्न होता है। इस तरह भावनाओंसे भावितचेता व्यक्ति व्रतोंके परिपालनमें दृढ़ होता है। ये सभी भावनाएँ नित्यानित्यात्मक आत्मामें ही हो सकती है। सर्वथा नित्यपक्षमें विक्रिया न होनेसे भावनाएँ नहीं हो सकतीं । यदि विक्रिया मानते हैं तो नित्यता नहीं रहती। सर्वथा अनित्यपक्षमें अनेकक्षणमें रहनेवाला एक पदार्थ नहीं है तथा अनेक अर्थको विषय करनेवाला एक ज्ञान नहीं है, अतः स्मरण नहीं हो सकता और इसीलिए भावना भी नहीं हो सकती। अनेकान्तवादमें तो द्रव्यार्थिकनयकी दृष्टिसे नित्य और उभयनिमित्तजन्य उत्पादविनाशरूप पर्यायोंकी दृष्टिसे अनित्यताको प्राप्त आत्मद्रव्यमें परिणमन हो सकता है। अतः भावनाएँ बन सकती हैं। हिंसाका लक्षण प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा ॥१३॥ प्रमत्तयोगसे प्राणव्यपरोपणको हिंसा कहते हैं। ६१-५. इन्द्रियोंके प्रचारविशेषका निश्चय न करके प्रवृत्ति करनेवाला प्रमत्त है। जैसे मदिरा पीनेवाला मदोन्मत्त होकर कार्याकार्य और वाच्यावाच्यसे अनभिज्ञ रहता है उसी तरह प्रमत्त जीवस्थान जीवोत्पत्तिस्थान और जीवाश्रयस्थान आदिको नहीं जानकर कमायोदयसे हिंसा व्यापारोंको ही करता रहता है और सामान्यतया अहिंसामें प्रयत्नशील नहीं होता। अथवा, चार विकथा चार कषाय पाँच इन्द्रियाँ निद्रा और प्रणय इन पन्द्रह प्रमादोंसे युक्त प्रमात है। योग-सम्बन्ध । यहाँ आत्माका परिणाम ही कर्ता है अतः जो प्रमादरूपसे परिणत होता है वह परिणाम प्रमत्त कहलाता है, उस परिणामके योग-सम्बन्धसे । अथवा योग अर्थात् मन वचन कायकी क्रिया । प्रमत्त-प्रमादपरिणत व्यक्तिके योग-व्यापारको प्रमत्तयोग कहते। ६६-११. व्यपरोपण-वियोग करना । प्राणोंके वियोग करनेसे प्राणीकी हिंसा होती है अतः प्राणका ग्रहण किया है, क्योंकि स्वतः प्राणी तो निरवयव है उसका क्या वियोग होगा ? प्राण आत्मासे सर्वथा मिन्न नहीं है, जिससे प्राणवियोग होनेपर भी हिंसा न मानी जाय किन्तु प्राणवियोग होनेपर आत्माको ही दुःख होता है अतः हिंसा है और अधर्म है। 'शरीरी आत्मा
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
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