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________________ ६।२५-२७] छठाँ अध्याय देखकर स्नेहसे ओतप्रोत हो जाना प्रवचनवत्सलत्व है। जो धार्मिकोंमें स्नेह है वही तो प्रवचन स्नेह है। ये सोलहकारण भावनाएँ तीर्थंकर प्रकृतिके आसवका कारण होती हैं। नीचगोत्रके आस्रवके कारण परात्मनिन्दाप्रशंसे सदसद्गुणच्छादनोद्भावने च नीचैर्गोत्रस्य ॥२५॥ परनिन्दा आत्मप्रशंसा परके विद्यमान गुणका ढंकना और अपनेमें अविद्यमान गुणोंका ढिंढोरा पीटना ये नीचगोत्रके आस्रवके कारण हैं। ६१-६. तथ्य या अतथ्य दोषके उद्भावनकी इच्छा या दोष प्रकट करनेकी चि वृत्ति निन्दा है । सद्भूत या असद्भूत गुणके प्रकाशनका अभिप्राय प्रशंसा है। प्रतिबन्धक कारणोंसे वस्तुका प्रकट नहीं होना छादन है और प्रतिबन्धकके हट जानेपर प्रकाशमें आ जाना उद्भावन है। जो गूयते अर्थात् शब्दव्यवहारमें आवे वह गोत्र है। जिससे आत्मा नीच व्यवहारमें आवे वह नीचगोत्र है। जाति कल बल रूपश्रत आज्ञा ऐश्वर्य और तपका मद करना, परकी अवज्ञा, दसरेकी हँसी करना, परनिन्दाका स्वभाव, धार्मिकजनपरिहास, आत्मोत्कर्ष, परयशका विलोप, मिथ्याकीर्ति अर्जन करना, गुरुजनोंका परिभव तिरस्कार दोषख्यापन विहेडन स्थानावमान भर्त्सन और गुणावसादन करना, तथा अंजलि-स्तुति-अभिवादन-अभ्युत्थान आदि न करना, तीर्थकरोंपर आक्षेप करना आदि नीचगोत्रके आस्रवके कारण हैं। उच्चगोत्रके आस्रवके कारण तद्विपर्ययो नीचैर्वृत्त्यनुत्सेको चोत्तरस्य ॥२६॥ ६१-४. सत-नीचगोत्र, विपर्यय-उलटे । अर्थात् आत्मनिन्दा, परप्रशंसा, परसद्गुणोश्रावन आत्मअसगुणच्छादन, गुणी पुरुषोंके प्रति विनयपूर्षक नम्रवृत्ति और ज्ञानादि होनेपर भी तत्कृत उत्सेक-अहंकार न होना ये सब उच्चगोत्रके आस्रवके कारण हैं । जाति कुल बह रूप वीर्य ज्ञान ऐश्वर्य और तप आदिकी विशेषता होनेपर भी अपने में बड़प्पनका भाव नहीं आये देना, परका तिरस्कार न करना, अनौद्धत्य, असूया उपहास बदनामी आदि न करना, मान नहीं करना, साधर्मी व्यक्तियोंका सन्मान, उन्हें अभ्युत्थान अंजलि नमस्कार आदि करना, इस युगमें अन जनोंमें न पाये जानेवाले ज्ञान आदि गुणोंके होनेपर भी उनका रंचमात्र अहंकार नहीं करना, निरहंकार नम्रवृत्ति, भस्मसे ढंकी हुई अग्निकी तरह अपने माहात्म्यका ढिंढोरा नहीं पीटना और धर्मसाधनोंमें अत्यन्त आदर बुद्धि आदि भी उच्चगोत्रके आस्रवके कारण हैं। अन्तरायके आस्रवके कारण विघ्नकरणमन्तरायस्य ॥२७॥ ६१. दान लाभ भोग उपभोग और वीर्यमें विघात करना-विघ्न उपस्थित करना अन्तरायके आस्रवके कारण है। ज्ञानप्रतिषेध, सत्कारोपघात. दान लाभ भोग उपभोग वीर्य स्नान अनलेपन गन्ध माल्य आच्छादन भूषण शयन आसन भक्ष्य भोज्य पेय लेह्य और परिभोग आदिमें विघ्न करना, विभवस्मृद्धिमें विस्मय करना, द्रव्यका त्याग नहीं करना, द्रव्यके उपयोगके समर्थनमें प्रमाद करना, देवताके लिए निवेदित किया या अनिवेदित किये गये द्रव्यका ग्रहण, निर्दोष उपकरणोंका त्याग, दूसरेकी शक्तिका अपहरण, धर्मव्यवच्छेद करना, कुशल चारित्रवाले तपस्वी गुरु तथा चैत्यकी पूजामें व्याघात करना, दीक्षित कृपण दीन अनाथको दिये ज नेवाले वस्त्र पात्र आश्रय आदिमें विघ्न करना, पर निरोध, बन्धन, गुह्य अंगच्छेद, कान नाक ओंठ आदिका काट देना प्राणिवध आदि अन्तरायकर्मके आस्रवके कारण हैं। ३८.
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
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