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________________ ६।१२-१३] छठाँ अध्याय ७१७ फोड़ेकी शल्य क्रिया करके भी क्रोधादि न होनेसे पापबन्ध नहीं करता उसी तरह अनादिकालीन सांसारिक जन्ममरणकी वेदनाको नाश करनेकी इच्छासे तप आदि उपायोंमें प्रवृत्ति करनेवाले यतिके कार्यों में स्वपर-उभयमें दुःखहेतुता दिखनेपर भी क्रोधादि न होनेके कारण वह पापका बन्धक नहीं होता । मनोरतिको सुख कहते हैं। जैसे अत्यन्त दुःखो भी संसारी जीवोंका जिन पदार्थों में मन रम जाता है वे ही सुखकारक होते हैं, उसी तरह यतिका मन अनशन आदि करनेमें रमता है, प्रसन्न होता है अतः वह दुःखी नहीं है और इसीलिए असाताका बन्धक नहीं है । कहा भी है-"नगर हो या वन, स्वजन हो या परजन, महल हो या पेड़की खोह, प्रियाकी गोद हो या शिलातल, वस्तुतः मनोरतिको ही सुख कहते हैं। जहाँ जिसका मन रम गया वह वहीं सुखी है।" सातावेदनीयके आस्रवके कारणभूतव्रत्यनुकम्पादानसरागसंयमादियोगः क्षान्तिः शौचमिति सद्वेद्यस्य ॥१२॥ भूतानुकम्पा व्रती-अनुकम्पा दान सरागसंयम क्षमा और शुचित्व आदि सातावेदनीयके आस्रवके कारण हैं। १-११. आयुकर्मके उदयसे उन-उन योनियों में होनेवाले प्राणियोंको भूत कहते हैं। व्रतोंको धारण करनेवाले श्रावक या मुनि व्रती हैं। दयाई व्यक्तिका दूसरेकी पीड़ाको अपनी ही पीड़ा समझकर कँप जाना अनुकम्पा है। इनकी अनुकम्पा भूतानुकम्पा और व्रती-अनुकम्पा है। अपनी वस्तुका परके अनुग्रहके लिए त्याग करना दान है । पूर्वोपात्त कर्मोदयसे जिसकी कषायें शान्त नहीं हैं पर जो कषायनिवारणके लिए तैयार है वह सराग है। प्राणियोंकी रक्षा तथा इन्द्रियोंकी विषय-प्रवृत्तिको रोकना संयम है । सरागके संयमको या रागसहित संयमको सरागसंयम कहते हैं। परतन्त्रताके कारण भोग-उपभोगका निरोध होनेपर उसे शान्तिसे सह जाना अकामनिर्जरा है। मिथ्यादृष्टियोंके अग्निप्रवेश, पंचाग्नितप आदि तपको बालतप कहते हैं । निरवद्य क्रियाके अनुष्ठानको योग कहते हैं। योग अर्थात् पूर्ण उपयोगसे जुट जाना । दूषणकी निवृत्तिके लिए योग शब्दका ग्रहण किया है। अर्थात्, भूतव्रत्यनुकम्पा दान और सरागसंयम आदिका योग । शुभपरिणामोंसे क्रोधादिकी निवृत्ति करना क्षान्ति है। लोभके प्रकारोंसे निवृत्ति शौच है। स्वद्रव्यका त्याग नहीं करना, पर द्रव्यका अपहरण करना और धरोहरका हड़पना आदि लोभके प्रकार हैं। इति शब्द प्रकारार्थक है। अर्थात् इस प्रकार सद्वद्यके आस्रव हैं। ६१२-१४. यहाँ समास नहीं करनेका कारण है-ऐसे ही अन्य उपायोंका संग्रह करना । यद्यपि 'इति' शब्दका भी यही प्रयोजन है फिर भी समास न करना और 'इति' शब्दका ग्रहण करना स्पष्टताके लिए है। अर्हत्पूजा, बाल वृद्ध और तपस्वीकी वैयावृत्य, आर्जव और विनयशीलता आदि भी सातावेदनीयके आस्रव है। भूतानुकम्पासे व्रती-अनुकम्पामें प्रधानता दिखानेके लिए 'व्रती'का पृथक्र ग्रहण किया है। १५. द्रव्यदृष्टिसे नित्यताको न छोड़ने वाले और नैमित्तिक परिणामोंसे अनित्य पर्याय को प्राप्त करनेवाले नित्यानित्यात्मक जीवके ही अनुकम्पा आदि परिणाम हो सकते हैं। सर्वथा नित्य माननेपर किसी प्रकारकी विक्रिया नहीं होती अतः अनुकम्पारूप परिणति नहीं हो सकती। यदि अनुकम्पा परिणति मानी जाती है, तो नित्यता नहीं रह सकेगी। क्षणिक पक्षमें पूर्व और उत्तरपर्यायका ग्रहण एक विज्ञानसे न होनेसे स्मरणादिके बिना अनुकम्पा नहीं हो सकती। संस्कार भी क्षणिक है। संस्कार यदि ज्ञानरूप है तो वह उसीकी तरह क्षणिक होगा। अतः वह भी स्मृति आदि नहीं करा सकता । यदि अज्ञानरूप है तो ज्ञानका कारण नहीं हो सकता। मोहनीयके आस्रवके कारण केवलिश्रुतसंघधर्मदेवावर्णवादो दर्शनमोहस्य ॥१३॥
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
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